Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 440
________________ ४४० नियमसार लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान् । यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति । । १६९ ।। व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम् । सकलविमलकेवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेश: षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोपि जिननाथतत्त्वविचारलब्ध: (दक्षः) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति । व्यवहारनय से केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, आत्मा को नहीं ह्न यदि कोई ऐसा कहे तो उसे क्या दोष है ? तात्पर्य यह है कि उसके उक्त कथन में कोई दोष नहीं है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यह व्यवहारनय के प्रादुर्भाव का कथन है । 'व्यवहारनय पराश्रित है' ह्र ऐसे शास्त्र के अभिप्राय के कारण व्यवहारनय से, व्यवहारनय की प्रधानता से; सकलविमल केवलज्ञान है तीसरा नेत्र जिनका और अपुनर्भवरूपी कमनीय मुक्ति कामिनी के जीवितेश ( प्राणनाथ ) सर्वज्ञ भगवान, छह द्रव्यों से व्याप्त तीन लोक को और शुद्ध आकाशमात्र आलोक को जानते हैं और निर्विकार शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं जानते ह्र ऐसा यदि व्यवहारनय की विवक्षा से कोई जिनेन्द्र भगवान कथित तत्त्व में दक्ष जीव कदाचित् कहे तो उसे वस्तुत: उसे कोई दोष नहीं है । " १६६वीं गाथा में यह कहा था कि केवली भगवान निश्चयनय से आत्मा को जानते हैं, पर को नहीं ह्न यदि कोई व्यक्ति निश्चयनय की मुख्यता से ऐसा कथन करता है तो उसमें कोई दोष नहीं है । अब इस गाथा में ठीक उससे विरुद्ध कहा जा रहा है कि यदि कोई व्यक्ति व्यवहार नय की मुख्यता से यह कहता है कि व्यवहारनय से केवली भगवान मात्र पर को जानते हैं, लोकालोक को जानते हैं, आत्मा को नहीं तो उनका यह कथन भी पूर्णत: निर्दोष है। यद्यपि निश्चय और व्यवहारनय की मुख्यता से किये दोनों कथन अपनी-अपनी दृष्टि से पूर्णतः सत्य हैं; तथापि प्रमाण की दृष्टि से केवली भगवान स्व और पर दोनों को एक साथ एक समय में देखते-जानते हैं ह्न यह कथन पूर्णतः सत्य है । जैनदर्शन की कथनपद्धति नहीं जानने से उक्त कथनों में अज्ञानीजनों को विरोध भासित होता है; पर स्याद्वाद शैली के विशेषज्ञों इसमें कोई विरोध भासित नहीं होता ।। १६९ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथा स्वामी समन्तभद्र द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न

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