________________
शुद्धोपयोग अधिकार
४३५
केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयत: पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्ततत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।
( मंदाक्रांता )
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्त:शुद्ध्यावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम् । स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंच: ।। २८२ ।।
प्रत्यक्षमात्र व्यापार में लीन निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्मा को वेदन करनेवाले परमजिनयोगीश्वर शुद्ध-निश्चयनय से कहते हैं तो उसमें कोई दोष नहीं है । "
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि यद्यपि शुद्धनिश्चयनय का उक्त कथन पूर्णतः सत्य है; तथापि केवली भगवान पर को जानते ही नहीं हैं ह्न यह बात नहीं है। वे उन पदार्थों में तन्मय नहीं होते, उनमें अपनापन नहीं करते; इसकारण उनके पर संबंधी परम सत्य ज्ञान को भी व्यवहार कहा गया है ।। १६६॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
अत्यन्त अविचल और अन्तर्मग्न नित गंभीर है। शुद्धि का आवास महिमावंत जो अति धीर है । व्यवहार के विस्तार से है पार जो परमातमा । उस सहज स्वातमराम को नित देखता यह आतमा ||२८२ ॥
जो एक है, विशुद्ध है, निज अन्तशुद्धि का आवास होने से महिमावंत है, अत्यन्त धीर है और अपने आत्मा में अत्यन्त अविचल होने से पूर्णत: अन्तर्मग्न हैं; स्वभाव से महान उस आत्मा में व्यवहार का प्रपंच (विस्तार) है ही नहीं ।
इसप्रकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत भगवान आत्मा में व्यवहार का प्रपंच नहीं है, व्यवहारनय के द्वारा निरूपित विस्तार नहीं है, गौण है ।। २८२ ।।
विगत गाथा में यह कहा गया है कि केवली भगवान आत्मा को देखते - जानते हैं, पर को नहीं ह्न निश्चयनय के इस कथन में कोई दोष नहीं है। अब इस गाथा में केवलज्ञान का स्वरूप समझाते हैं।