Book Title: Niyamsara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 437
________________ शुद्धोपयोग अधिकार तथाहि ( मंदाक्रांता ) सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरु: शाश्वतानन्तधामा लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च । तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ।। २८३ ।। ( हरिगीत ) मूर्त को अमूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को । स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ॥८०॥ ४३७ देखनेवाले आत्मा का जो ज्ञान अमूर्त को, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय पदार्थों को और प्रच्छन्न पदार्थों को तथा स्व और पर ह्र सभी को देखता है, जानता है; वह ज्ञान प्रत्यक्ष है । उक्त गाथा और उसकी टीका का सार यह है कि अतीन्द्रिय क्षायिक केवलज्ञान में स्वपर और मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थ अपनी सभी स्थूल सूक्ष्म पर्यायों के साथ एक समय में जानने में आते हैं ||८०|| इसके बाद टीकाकार एक छन्द स्वयं प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत ) अनन्त शाश्वतधाम त्रिभुवनगुरु लोकालोक के । रे स्व-पर चेतन-अचेतन सर्वार्थ जाने पूर्णतः । अरे केवलज्ञान जिनका तीसरा जो नेत्र है । विदित महिमा उसी से वे तीर्थनाथ जिनेन्द्र हैं || २८३ || केवलज्ञानरूप तीसरे नेत्र से प्रसिद्ध महिमा धारक त्रैलोक्यगुरु हे तीर्थनाथ जिनेन्द्र ! आप अनन्त शाश्वतधाम हो और लोकालोक अर्थात् स्व-पर समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को भलीभाँति जानते हो । तीर्थंकर भगवान जिनेन्द्रदेव की महिमा के सूचक इस छन्द में यही कहा गया है कि हे जिनेन्द्र भगवान आप तीन लोक में रहनेवाले सभी भव्य आत्माओं के गुरु हो, अनन्त सुख शाश्वत धाम हो और लोकालोक में रहनेवाले सभी चेतन-अचेतन पदार्थों को भलीभाँति जानते हो ।। २८३ ।। विगत गाथा में केवलज्ञान के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया । अब इस गाथा में यह कहते हैं कि केवलदर्शन के अभाव में केवलज्ञान संभव नहीं है।

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