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नियमसार
तथा हि ह्न
(मालिनी) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्व
किमपि वचनमानं निर्वृते: कारणं यत् । तदपि भवभवेष श्रयते बाहाते वा न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।।१२१।।
(दोहा ) पहले कभी न भायी जो भवावर्त्त के माँहि ।
भवाभाव के लिए अब मैं भाता हूँ ताहि ।।४३।। इस संसार के भँवरजाल में उलझा हुआ मैं; भव का अभाव करने के लिए, अब पहले कभी न भायी गई भावना को भाता हूँ।
उक्त छंद में तो मात्र यही कहा गया है कि इस संसारसागर से पार उतारनेवाली सम्यग्दर्शनादि की भावना मैंने आजतक नहीं भायी; क्योंकि अबतक तो मैं इस संसार के भंवरजाल में उलझा रहा हूँ। अब मुझे कुछ समझ आई है; इसलिए अब मैं भव का अभाव करने के लिए, संसार सागर से पार उतरने के लिए उक्त सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म की भावना भाता हूँ।।४३।। इसके बाद टीकाकार एक छंद स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) संसार सागर में मगन इस आत्मघाती जीव ने। रे मात्र कहने के धर्म की वार्ता भव-भव सुनी।। धारण किया पर खेद है कि अरे रे इस जीव ने।
ज्ञायकस्वभावी आत्मा की बात भी न कभी सुनी।।१२१|| जो मोक्ष का थोड़ा-बहत कथनमात्र कारण है; उस व्यवहाररत्नत्रय को तो इस संसार समुद्र में डूबे जीव ने अनेक भवों में सुना है और धारण भी किया है; किन्तु अरे रे ! खेद है कि जो हमेशा एक ज्ञानरूप ही है, ऐसे परमात्मतत्त्व को कभी सुना ही नहीं है और न कभी तदनुसार आचरण ही किया है।
इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि यद्यपि व्यवहाररत्नत्रय को मुक्ति का कारण व्यवहारनय से कहा गया है; तथापि वह कथनमात्र कारण है; क्योंकि शुभरागरूप
और शुभक्रियारूप होने से वह पुण्यबंध का ही कारण है, मोक्ष का कारण नहीं। संसारसमुद्र में डूबे हुए जीवों ने उक्त व्यवहार धर्म की चर्चा तो अनेक बार सुनी है, उसका यथाशक्ति