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नियमसार
इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम् । एवं समस्ताचरणानां परमाचरणमित्युक्तम् । बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम् । पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परमजिनयोगिनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमिति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
(द्रुतविलम्बित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम् ।
सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१८४॥ इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यहाँ परमतपश्चरण में लीन परमजिनयोगीश्वरों को निश्चयप्रायश्चित्त है। इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त ही समस्त आचरणों में परम आचरण है ह ऐसा कहा है।
बहुत असत् प्रलापों से बस होओ, बस होओ। निश्चय-व्यवहार स्वरूप परमतपश्चरणात्मक, परमजिनयोगियों को अनादि संसार से बंधे हुए द्रव्य-भावकर्मों के सम्पूर्ण विनाश का कारण, एकमात्र शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ह्न इसप्रकार हे शिष्य तू जान।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि अधिक विस्तार में जाने से क्या लाभ है और एक ही बात बार-बार दुहराने से भी क्या उपलब्ध होनेवाला है? समझने की बात तो एकमात्र यही है कि मुनि-अवस्था में होनेवाली तीन कषाय के अभावरूप वीतरागपरिणति और शुद्धोपयोगरूपधर्म ही निश्चयप्रायश्चित्त है।।११७||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पाँच छन्द लिखते हैं। उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) अनशनादि तपचरणमय और ज्ञान से गम्य |
अघक्षयकारण तत्त्वनिज सहजशुद्धचैतन्य ||१८४|| अनशनादि तपश्चरणात्मक सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानने वालों को सहज ज्ञानकला के गोचर सहजतत्त्वरूप भगवान आत्मा पुण्य-पाप के क्षय का कारण है।
ध्यान रहे यहाँ अघ शब्द का प्रयोग पुण्य और पाप ह दोनों के अर्थ में किया गया है; क्योंकि शुद्धात्मा के ध्यानरूप निश्चयप्रायश्चित्त पुण्य और पाप ह दोनों का नाश करनेवाला है। जिसप्रकार क का अर्थ पृथ्वी, ख का अर्थ आकाश होता है; उसीप्रकार घ का अर्थ भगवान आत्मा होता है । घ अर्थात् भगवान आत्मा की विराधना का जो भी कारण बने, वह सभी अघ हैं। चूंकि पुण्य और पाप दोनों ही आत्मा के विराधक भाव हैं; अत: वे दोनों ही अघ हैं। यद्यपि सामान्य लोक में अघ शब्द का अर्थ पाप किया जाता है; तथापि अध्यात्मलोक में अघ का अर्थ और पुण्य और पाप दोनों ही होता है।।१८४||