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शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
३१३ स्थिरभावं सनातनभावं परिहृत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यवहारक्रियाकांडाडम्बरविविधविकल्पकोलाहलविनिर्मुक्तसहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरणक्षीरवारांराशिनिशीथिनीहृदयाधीश्वरः, तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेनिश्चयकायोत्सर्गो भवतीति।
(मंदाक्रांता) कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां कायोद्भूतप्रबलतरतत्कर्ममुक्तेः सकाशात् । वाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्तेः
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।१९५।। शरीर, स्त्री, पुत्र, खेत, मकान और सोना, चाँदी आदि सभी परद्रव्यों में स्थिरभाव छोड़कर; व्यावहारिक क्रियाकाण्ड संबंधी आडम्बर और विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित होकर; सहज परमयोग के बल से; सहजतपश्चरणरूपी क्षीरसागर का चन्द्रमारूप जो जीव; नित्य रमणीय, निरंजन निजकारणपरमात्मा को नित्य ध्याता है; वह सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर का शिरोमणिरूप जीव वस्तुत: निश्चयकायोत्सर्ग है।"
यद्यपि इस शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त अधिकार में आदि से अर्थात् गाथा ११३ से लेकर गाथा ११८ तक निश्चयप्रायश्चित्त की ही चर्चा चलती रही है; तथापि अन्तिम तीन गाथाओं में क्रमश: ध्यान, शुद्धनिश्चयनियम और निश्चयकायोत्सर्ग की चर्चा हुई है। __इससे प्रतीत होता है कि शुद्धनिश्चयनय से ध्यान, निश्चयनियम और निश्चयकायोत्सर्ग एक प्रकार से शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त के ही रूपान्तर हैं।
इस गाथा और उसकी टीका में निश्चयकायोत्सर्ग का स्वरूप समझाते हए कहा गया है कि शरीर, स्त्री-पुत्रादि, मकानादि एवं स्वर्णादि परपदार्थों में स्थिरभाव (कायादि स्थिर हैं ह्न इसप्रकार की मान्यता) छोड़कर, व्यवहारिक क्रियाकाण्ड एवं विकल्पों के कोलाहल से रहित होकर, परमयोग के बल से, जो जीव निजकारणपरमात्मा को ध्याता है; वह जीव ही निश्चयकायोत्सर्ग है।।१२१||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव पाँच छन्द लिखते हैं; उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) रेसभी कारज कायकृत मन के विकल्प अनल्प जो। अर जल्पवाणी के सभी को छोड़ने के हेत से ।। निज आत्मा के ध्यान से जो स्वात्मनिष्ठापरायण। हे भव्यजन उन संयमी के सतत् कायोत्सर्ग है।।१९५||