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नियमसार
गतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञानदर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति ।
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तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः ह्र
तथा हि ह्र
ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः । ।७८।।
(मंदाक्रांता )
आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्ट्योः
भेदो जातो न खलु परमार्थेन वह्नायुष्णवत्सः । । २७८ ।।
उक्त दोष के भय से हे शिष्य ! यदि तू ऐसा कहे कि ज्ञान केवल परप्रकाशक नहीं हैं तो दर्शन भी केवल आत्मगत नहीं है, स्वप्रकाशक नहीं है ह्र ऐसा भी कहा गया है । इसलिए वास्तविक समाधानरूप सिद्धान्त का हार्द यह है कि ज्ञान और दर्शन को कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना ही है । "
इस गाथा और उसकी टीका में ज्ञान, दर्शन और आत्मा ह्न तीनों को अनेक तर्क और युक्तियों से स्वपरप्रकाशक ही सिद्ध किया गया है ।। १६२ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज ' तथा श्री महासेन पण्डितदेव के द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( कुण्डलिया )
अरे ज्ञान से आत्मा, नहीं सर्वथा भिन्न । अभिन्न भी है नहीं, यह है भिन्नाभिन्न ॥ यह है भिन्नाभिन्न कथंचित् नहीं सर्वथा । अरे कथंचित् भिन्न अभिन्न भी किसी अपेक्षा || जैनधर्म में नहीं सर्वथा कुछ भी होता । पूर्वापर जो ज्ञान आतमा वह ही होता || ७८ ॥
आत्मा ज्ञान से सर्वथा भिन्न नहीं है और सर्वथा अभिन्न भी नहीं है; कथंचित् भिन्नाभिन्न
है; क्योंकि पूर्वापर ज्ञान ही आत्मा है ह्र ऐसा कहा है।
१. महासेन पण्डितदेव, ग्रंथ नाम और श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।