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शुद्धोपयोग अधिकार
तथा हि
( मालिनी ) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा प्रकटतरसुदृष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी । विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थः
स भवति परम श्रीकामिनीकामरूपः ।। २८० ॥
( हरिगीत )
अरे जिनके ज्ञान इसतरह प्रतिबिंबित हुए सुरती नरपति मुकुटमणि की माल से अर्चित चरण ।
सब द्रव्य लोकालोक के । जैसे गुंथे हों परस्पर ॥
जयवंत हैं इस जगत में निर्दोष जिनवर के वचन ||७९ ॥
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जिन्होंने १८ दोषों को जीता है, जिनके चरणों में इन्द्र तथा चक्रवर्तियों के मणिमाला युक्त मुकुटवाले मस्तक झुकते हैं और जिनके ज्ञान में लोकालोक के सभी पदार्थ इसप्रकार ज्ञात होते हैं, प्रवेश पाते हैं; कि जैसे वे एक-दूसरे से गुंथ गये हैं; ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवन्त वर्तते हैं।
इसप्रकार इस छन्द में जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि वे १८ दोषों से रहित हैं, लोकालोक के सभी पदार्थों को जानते हैं और इन्द्र व चक्रवर्ती उनके चरणों में नतमस्तक रहते हैं; वे जिनेन्द्र भगवान जयवंत वर्तते हैं ।।७९।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
ज्ञान का घनपिण्ड आतम अरे निर्मल दृष्टि से । है देखता सब लोक को इस लोक में व्यवहार से |
मूर्त और अमूर्त सब तत्त्वार्थ को है जानता । वह आतमा शिववल्लभा का परम वल्लभ जानिये ||२८०||
ज्ञानपुंज यह आत्मा अत्यन्त स्पष्ट दृष्टि (दर्शन) होने से अर्थात् केवलदर्शन होने से व्यवहारनय से सर्वलोक देखता है तथा केवलज्ञान से सभी मूर्त-अमूर्त पदार्थों को जानता है। ऐसा वह भगवान आत्मा परमश्रीरूपी कामिनी का, मुक्तिसुन्दरी का वल्लभ (प्रिय) होता है।