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नियमसार
मिति चेत्, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् व्यवहारनयबलेनेति । ततो दर्शनमपि तादृशमेव । त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् । तेन व्यवहारनयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि तादृशमेवेति। तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ ह्न
(मालिनी) जयति विजितदोषोऽमर्त्यमर्येन्द्रमौलि
प्रविलसदुरुमालाभ्यार्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्येदृशौ व्यश्नुवाते
सममिव विषयेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेधुम् ।।७९।। ऐसा प्रश्न होने पर उसके उत्तर में कहते हैं कि 'पराश्रितो व्यवहारः ह्र व्यवहार पराश्रित होता है' ह्न आगम के उक्त कथन के आधार पर व्यवहारनय के बल से ऐसा है। तात्पर्य यह है कि आगम में व्यवहारनय से केवलज्ञान को परप्रकाशक (पर को जाननेवाला) कहा गया है। इसीप्रकार केवलदर्शन भी व्यवहारनय से परप्रकाशक (पर को देखने वाला) है।
तीन लोक में प्रक्षोभ के हेतुभूत एवं सौ इन्द्रों से वंदनीय कार्यपरमात्मा तीर्थंकर परमदेव अरहंत भगवान भी केवलज्ञान के समान ही व्यवहारनय से परप्रकाशक (पर को देखनेजाननेवाले) हैं। उसी के अनुसार व्यवहार नय के बल से उनके केवलदर्शन को परप्रकाशकपना (पर को देखनेरूप प्रकाशनपना) है।"
गाथा और उसकी टीका में यह बात स्पष्ट की गई है कि जिसप्रकार व्यवहारनय से केवलज्ञान परप्रकाशक (पर को जाननेवाला) है; उसीप्रकार केवलदर्शन भी परप्रकाशक (पर को देखनेवाला) है।
इसीप्रकार जैसे व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक (पर को देखने-जाननेवाला) है; तैसे केवलदर्शन भी व्यवहार से परप्रकाशक (पर को देखनेवाला) है ।।१६४।।
इसके बाद तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ ह्न तथा श्रुतबिन्दु में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
१. श्रुतबिन्दु, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।