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नियमसार
णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ॥१६५।। ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।
आत्मा आत्मप्रकाशौ निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६५।। निश्चयनयन स्वरूपाख्यानमेतत् । निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरणप्रमुक्तशुद्धदर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव । आत्मा हि विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षणलक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्तबहिर्विषयत्वात्
इसप्रकार इस छन्द में जिनेन्द्र भगवान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उनकी स्तुति की गई है। शिववल्लभा (अत्यन्त प्रिय मुक्तिरूपी पत्नी) के अत्यन्त वल्लभ (प्रिय) अरहंत भगवान सम्पूर्ण लोकालोक को केवलदर्शन से देखते हैं और केवलज्ञान से जानते हैं। इसप्रकार वे व्यवहारनय से सम्पूर्ण लोकालोक को देखते-जानते हैं ।।२८०।।
विगत गाथा में व्यवहारनय से ज्ञान, दर्शन और आत्मा के पर-प्रकाशकपने की बात की थी और अब इस गाथा में निश्चयनय से ज्ञान, दर्शन आत्मा के स्वप्रकाशकपने की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) निजप्रकाशक ज्ञान सम दर्शन कहा परमार्थ से।
अर निजप्रकाशक आत्म सम दर्शन कहा परमार्थ से ||१६५|| निश्चयनय से ज्ञान स्वप्रकाशक (स्वयं को जाननेवाला) है; इसलिए निश्चयनय से दर्शन भी स्वप्रकाशक (स्वयं को देखनेवाला) है।
निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक (स्वयं को देखने-जाननेवाला) है; इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक (स्वयं को देखनेवाला) है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
"यह निश्चयनय से स्वरूप का कथन है। यहाँ जिसप्रकार स्व-प्रकाशनपने (अपने आत्मा को जानने) को निश्चयनय से शुद्धज्ञान का लक्षण कहा है; उसीप्रकार समस्त आवरण से युक्त शुद्ध दर्शन भी स्व-प्रकाशक (अपने आत्मा को देखनेवाला) ही है।
सर्व इन्द्रिय व्यापार को छोड़ा होने से आत्मा जिसप्रकार वस्तुत: स्वप्रकाशक (स्वयं को जानने-देखने) रूप लक्षण से लक्षित है; उसीप्रकार बहिर्विषयपना छोड़ा होने से दर्शन भी स्वप्रकाशकत्व (अपने आत्मा को देखनेरूप) प्रधान ही है।
इसप्रकार स्वरूपप्रत्यक्षलक्षण से लक्षित आत्मा; अखण्ड, सहज, शुद्धज्ञानदर्शनरूप