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नियमसार
तथा हि ह्न
(मंदाक्रांता) ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम् । दृष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा
ताभ्यां देव: स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।।२७७।। जिसने कर्मों को छेद डाला हैह्र ऐसा यह आत्मा विश्व के समस्त पदार्थों को उनकी भूत, भावी और वर्तमान पर्यायों के साथ ह्न सभी को एकसाथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता; इसलिए अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी डाला है समस्त ज्ञेयाकारों को जिसने ह्न ऐसा यह ज्ञानमूर्ति आत्मा तीनों लोकों के सभी पदार्थों के ज्ञेयाकारों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ कर्मबंधन से मुक्त ही रहता है।
उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि लोकालोक को सहज भाव से जाननेवाला यह ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण सबको सहजभाव से जानते हुए भी कर्मबंध को प्राप्त नहीं होता ||७७||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘तथाहि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( मनहरण कवित्त ) ज्ञान इक सहज परमातमा को जानकर।
लोकालोक ज्ञेय के समूह को है जानता।। ज्ञान के समान दर्शन भी तो क्षायिक है।
वह भी स्वपर को है साक्षात् जानता || ज्ञान-दर्शन द्वारा भगवान आतमा ।
स्वपर सभी ज्ञेयराशि को है जानता ।। ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ परमातमा ।
स्वपरप्रकाशी निज भाव को प्रकाशता ||२७७|| ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक संबंधी समस्त ज्ञेयसमूह को प्रगट करता है, जानता है। नित्य शुद्ध क्षायिकदर्शन भी साक्षात् स्वपरविषयक है; वह भी स्व-पर को साक्षात् प्रकाशित करता है। यह भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन के द्वारा स्व-पर संबंधी ज्ञेयराशि को जानता है।
उक्त सम्पूर्ण प्रकरण में गाथा में, टीका में और टीका में उद्धृत किये गये छन्द में तथा