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तथा हि ह्न
(मंदाक्रांता )
मुक्त्वा जल्पं भवभयकरं बाह्यमाभ्यन्तरं च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् । ज्ञानज्योतिः प्रकटितनिजाभ्यन्तरांगान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ।। २५९ ।।
इसके बाद टीकाकार 'तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्न तथा अमृतचन्द्र आचार्यदेव ने कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है । वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है । उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को । हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥ ७१ ॥
नियमसार
इसप्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है ह्न ऐसी महती नयपक्षकक्षा का उल्लंघन करके ज्ञानी जीव अन्तर्बाह्य से समतारस स्वभाववाले अनुभूतिमात्र अपने भाव को प्राप्त करते हैं।
ज्यों-ज्यों नयों के विस्तार में जाते हैं, त्यों-त्यों मन के विकल्प भी विस्तार को प्राप्त होते हैं, चंचलचित्त लोकालोक तक उछलने लगता है। ज्ञानी जीव इसप्रकार के नयों के पक्ष को छोड़कर, समरसी भाव को प्राप्त होकर, आत्मा के एकत्व में अटल होकर, महामोह का नाश कर, शुद्ध अनुभव के अभ्यास से निजात्मबल प्रगट करके पूर्णानन्द में लीन हो जाते हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि नयविकल्पों के विस्तार से उपयोग समेट कर जब आत्मा स्वभावसन्मुख होकर, निर्विकल्पज्ञान रूप परिणमित होता है; तभी अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है ।। ७१ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथाहि लिखकर एक छन्द स्वयं भी लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
संसारभयकर बाह्य- अंतरजल्प तज समरसमयी । चित्चमत्कारी एक आतम को सदा स्मरण कर ॥ ज्ञानज्योति से अरे निज आतमा प्रगटित किया । वह क्षीणमोही जीव देखे परमतत्त्व विशेषतः ।। २५९।।