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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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जदि सक्कदि काढुंजे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ।।१५४।। यदि शक्यते कर्तुम् अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम् ।
शक्तिविहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्त्तव्यम् ।।१५४।। अत्र शुद्धनिश्चयधर्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणादिकमेव कर्तव्यमित्युक्तम् । मुक्तिसुन्दरीप्रथम
( हरिगीत ) परीवर्तन वाँचना अर पृच्छना अनुप्रेक्षा ।
स्तुति मंगल पूर्वक यह पंचविध स्वाध्याय है।।७२।। पढे हुए को दुहरा लेना, वाचना, पृच्छना (पूछना), अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ह्न ऐसे ये पाँच प्रकार का स्तुति व मंगल सहित स्वाध्याय है। __इस गाथा में जो स्वाध्याय के पाँच भेद गिनाये गये हैं; वे तत्त्वार्थसूत्र में समागत भेदों से कुछ भिन्न दिखाई देते हैं। ___ तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के पाँच भेद इसप्रकार दिये हैं ह्र वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश।
यहाँ प्रतिपादित पहला भेद परिवर्तन तत्त्वार्थसूत्र के चतुर्थ भेद आम्नाय से मिलताजुलता है। इसीप्रकार यहाँ कहा गया अन्तिम भेद धर्मकथा तत्त्वार्थसूत्र में समागत अन्तिम भेद धर्मोपदेश से मिलता-जुलता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इनमें कोई अन्तर नहीं है।
विगत गाथा में वचनमय प्रतिक्रमणादि का निषेध किया था और यहाँ कहते हैं कि निश्चय धर्मध्यान एवं शुक्लध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमण ही करने योग्य है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) यदिशक्य हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना चाहिए।
यदि नहीं हो शक्ति तो श्रद्धान ही कर्तव्य है।।१५४|| यदि किया जा सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण ही करो; यदि तू शक्ति विहीन हो तो तबतक श्रद्धान ही कर्त्तव्य है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ ऐसा कहा है कि शुद्धनिश्चयधर्मध्यानरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य हैं।