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नियमसार जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादि य परीक्खऊण फुडं। मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ॥१५५।।
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फुटम् ।
मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम् ।।१५५।। इह हि साक्षादन्तर्मखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमक्तम । श्रीमदर्हन्मखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भे द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चयनयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः परमजिनयोगीश्वरःप्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा चैकाकीभूयं मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नःसन् निजकार्यं निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत ) जिनवरकथित जिनसूत्र में प्रतिक्रमण आदिक जो कहे।
कर परीक्षा फिर मौन से निजकार्य करना चाहिए।।१५५|| जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये परमागम में प्राप्त प्रतिक्रमणादि की भले प्रकार परीक्षा करके मौन होकर योगी को प्रतिदिन अपना कार्य साधना चाहिए।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यहाँ साक्षात् अन्तर्मुख परमजिन योगी को यह शिक्षा दी गई है। श्रीमद् अरहंत भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए हैं ह्र ऐसी चतुर शब्द रचनारूप द्रव्यश्रुत में कही गई शुद्ध निश्चयनयात्मक परमात्म-ध्यानात्मक प्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को जानकर, केवल स्वकार्य में परायण परमजिनयोगी-श्वर प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन रचना को परित्याग कर, सम्पूर्ण संग (परिग्रह) की आसक्ति को छोड़कर, अकेला होकर, मौन व्रत सहित समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मनुष्यों) द्वारा निन्दा किये जाने पर भी अव्यग्र रहकर निज कार्य को निरन्तर साधना चाहिए; क्योंकि वह आत्मध्यानरूप निजकार्य मुक्तिरूपी सुलोचना के सम्भोग के सुख का मूल है।"
इस गाथा और उसकी टीका में एक ही बात कही गई है कि योगियों का एकमात्र कर्तव्य निज आत्मा की साधना-आराधना है; वह साधना एकमात्र केवली की वाणी में समागत द्रव्यश्रुत में ग्रथित निश्चय परम प्रतिक्रमणादिरूप है; क्योंकि प्रतिक्रमणादि सभी आवश्यक एकमात्र आत्मध्यान में समाहित हैं।।१५५||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं, उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न