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नियमसार दर्शनप्राभृतात्मकनिश्चयप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तप्रत्याख्यानप्रमुखशुद्धनिश्चयक्रियाश्चैव कर्तव्याः संहननशक्तिप्रादुर्भावे सति हंहो मुनिशार्दूल परमागमामकरंदनिष्पन्दिमुखपद्मप्रभसहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह । शक्तिहीनो यदि दग्धकालेऽकाले केवलं त्वया निजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति।
सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर के ही शिखामणि, परद्रव्य से परांगमुख और स्वद्रव्य में निष्णात बुद्धिवाले, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित देहमात्र परिग्रह के धारी एवं परमागमरूपी मकरंद झरते हुए मुख कमल से शोभायमान हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल ! संहनन
और शक्ति का प्रादुर्भाव होने पर मुक्तिसुन्दरी के प्रथम दर्शन की भेंटस्वरूप निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रायश्चित्त, निश्चय प्रत्याख्यान आदि प्रमुख शुद्ध निश्चय क्रियाएँ ही कर्त्तव्य हैं।
यदि इस हीन दग्धकालरूप अकाल में तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही कर्त्तव्य है।" इसीप्रकार के भाव की पोषक एक गाथा अष्टपाहुड़ में आती है; जो इसप्रकार है ह्न
जं सक्कइतंकीरइ जंच ण सक्केइ तं च सद्दहणं। केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।
(हरिगीत ) जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें।
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें। जो शक्य हो वह करें और जो शक्य न हों, उसका श्रद्धान करें; क्योंकि केवली भगवान ने कहा है कि श्रद्धान करनेवाले को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
तत्त्वार्थसूत्र के अन्त में जो गाथायें छपी रहती हैं, उनमें भी इसप्रकार की एक गाथा आती है, जो इसप्रकार है ह्न
जंसक्कइ तं कीरइ जण सक्कड़ तहेव सद्दहणं।
सद्दहभावो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ।। जो शक्य है, वह करना चाहिए, पर जो शक्य नहीं है, उसका श्रद्धान करना चाहिए। क्योंकि श्रद्धान करनेवाला जीव अजर-अमर स्थान (मुक्ति) को प्राप्त करता है।
नियमसार की इस गाथा में अत्यंत स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि यदि शक्य है तो ध्यान मय प्रतिक्रमण आदि ही करना चाहिए; अन्यथा इनका श्रद्धान तो अवश्य करना ही चाहिए। १. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड़, गाथा २२