________________
४०६
नियमसार
लद्धूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं । । १५७ ।। लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन ।
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं भुंक्ते त्यक्त्वा परततिम् । । १५७ ।।
अत्र दृष्टान्तमुखेन सहजतत्त्वाराधनाविधिरुक्तः । कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतोदयेन निधिं लब्ध्वा तस्य निधेः फलं हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थ अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति दृष्टान्तपक्षः । दान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीवः क्वचिदासन्नभव्यस्य गुणोदये सति सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्तिसुन्दरीमुखमकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति ।
इस गाथा में उदाहरण के माध्यम से यह कहते हैं कि यदि तुझे निधि मिल गई है तो उसे तू गुप्त रहकर क्यों नहीं भोगता ? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
ज्यों निधी पाकर निजवतन में गुप्त रह जन भोगते ।
त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसंग तज के भोगते || १५७ ।।
जैसे कोई एक दरिद्र मनुष्य निधि (खजाना) को पाकर अपने वतन में गुप्त रहकर उसके फल को भोगता है; उसीप्रकार ज्ञानीजन भी परजनों की संगति को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगते हैं ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यहाँ दृष्टान्त द्वारा सहज तत्त्व की आराधना की विधि बताई गई है। कोई एक दरिद्र मनुष्य क्वचित् कदाचित् पुण्योदय से निधि को पाकर, उस निधि के फल को जन्मभूमिरूप गुप्तस्थान में रहकर अति गुप्तरूप से भोगता है ह्र यह दृष्टांत का पक्ष है ।
दान्त पक्ष से भी सहज परमतत्त्वज्ञानी जीव क्वचित् आसन्न भव्यतारूप गुण का उदय होने से सहज वैराग्य सम्पत्ति होने पर, परमगुरु के चरणकमल युगल की निरतिशय भक्ति द्वारा मुक्ति सुन्दरी के मुख के पराग के समान सहज ज्ञाननिधि को पाकर स्वरूपप्राप्ति रहित जनों के समूह को ध्यान में विघ्न का कारण जानकर उन्हें छोड़ता है । "
यह एक सीधी सहज सरल गाथा है, इसमें इतना ही कहा गया है कि जिसप्रकार लोक में यदि किसी को कोई गुप्त खजाना मिल जावे तो वह उसे अत्यन्त गुप्त रहकर भोगता है; किसी को भी नहीं बताता । उसीप्रकार ज्ञानीजन भी रत्नत्रयरूप निधि पाकर उसे गुप्त रहकर भोगते हैं, उसका प्रदर्शन नहीं करते ।