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शुद्धोपयोग अधिकार
(अनुष्टुभ् ) जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्या: मुखपद्मे जगाम सः ।
अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ।।२७६ ।। णाणं परप्यासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव । अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।। १६१ । ।
समरसमय अशरीरी सुख देनेवाली मुक्तिरूपी प्रिया के मुखकमल पर अवर्णनीय कान्ति फैलाते हैं; जगत में स्नेहमयी अपनी प्रिया को निरन्तर सुखोत्पत्ति का कारण कौन नहीं होता ?
जिसप्रकार जगत के मोही जीव स्वयं की प्रिय प्रिया को प्रसन्न रखते हैं; उसीप्रकार हे प्रभो ! आप भी समतारसमय अशरीरी सुख देनेवाली अपनी मुक्ति प्रिया के मुखकमल पर अवर्णनीय कांति फैलाते हैं, उसे सब प्रकार अनुकूलता प्रदान करते हैं ।। २७५।।
चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
दोहा )
अरे भ्रमर की भांति तुम, शिवकामिनि लवलीन |
अद्वितीय आत्मीक सुख पाया जिन अमलीन || २७६ ।।
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हे जिनेन्द्र ! आप मुक्तिरूपी कामिनी के मुखकमल पर भ्रमर की भांति लीन हो गये हो और आपने अद्वितीय आत्मिक सुख प्राप्त किया है।
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार भ्रमर कमल पुष्पों पर आकर्षित होकर लीन हो जाते हैं; उसीप्रकार हे जिनेन्द्र भगवान आप भी अपने आत्मा में लीन हैं और आत्मानन्द ले रहे हैं । २७६ ||
इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त चारों छन्दों में टीकाकार मुनिराज विविध प्रकार से जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते दृष्टिगोचर होते हैं ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
अध्यात्म और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र असंभव नहीं तो दुर्लभ तो है ही।
विगत गाथा में यह कहा था कि केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यदि कोई ऐसा माने कि ज्ञान सर्वथा परप्रकाशक ही है और दर्शन स्वप्रकाशक तो उसका यह कथन सत्य नहीं है ।
( हरिगी
परप्रकाशक ज्ञान दर्शन स्वप्रकाशक इसतरह । स्वपरप्रकाशक आत्मा है मानते हो तुम
यदि || १६१ ||