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शुद्धोपयोग अधिकार
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तथा हि ह्न
(स्रग्धरा) वर्तेते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोकैनाथे। एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलमस्तोमके ते तथैवम् ।।२७३।।
(वसंततिलका) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि
मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता। तामेव तेन जिननाथपथाघुनाहं
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम् ।।२७४।। उपयोग एक साथ नहीं होते। केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन ह्न दोनों उपयोग एक साथ होते हैं।
इस गाथा में भी मात्र इतना ही कहा गया है कि क्षायोपशमिकज्ञान वालों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है और क्षायिकज्ञानवाले केवली भगवान को दर्शन और ज्ञान एक साथ होते हैं ।।७६।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथाहिं' लिखकर चार छन्द स्वयं लिखते हैं; उनमें से प्रथम छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत ) अज्ञानतम को सूर्यसम सम्पूर्ण जग के अधिपति। हे शान्तिसागर वीतरागी अनूपम सर्वज्ञ जिन || संताप और प्रकाश युगपत् सूर्य में हों जिसतरह।
केवली के ज्ञान-दर्शन साथ हों बस उसतरह ||२७३|| सम्पूर्ण जगत के एक नाथ, धर्मतीर्थ के नायक, अनुपम सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान और दर्शन चारों ओर से निरंतर एक साथ वर्तते हैं। अन्धकार समूह के नाशक, तेज की राशिरूप सूर्य में जिसप्रकार उष्णता और प्रकाश एक साथ वर्तते हैं और जगत के जीवों को नेत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जगत जीव प्रकाश हो जाने से देखने लगते हैं; उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवान के निमित्त से जगत के जीव भी वस्तुस्वरूप देखने-जानने लगते हैं।