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शुद्धोपयोग अधिकार
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जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।।
युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा।
दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ।।१६०।। इह हि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं दृष्टान्तमुखेनोक्तम् । अत्र दृष्टान्तपक्षे क्वचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य मध्यगतस्य सहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवत: परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शने च युगपद् वर्तेते । किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं भवति इति ।
उक्त छन्द में भी यही कहा गया है कि केवली भगवान निश्चय से निज भगवान आत्मा को और व्यवहार से लोकालोक को जानते हैं ।।२७२।।
विगत गाथा में यह बताया गया था कि केवली भगवान निश्चयनय से स्वयं के आत्मा को देखते-जानते हैं और व्यवहारनय से लोकालोक को देखते-जानते हैं और अब इस गाथा में सोदाहरण यह बताते हैं कि केवली भगवान के दर्शन और ज्ञान एक साथ होते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह
(हरिगीत) ज्यों ताप और प्रकाश रवि में एकसाथ रहें सदा।
त्यों केवली के ज्ञान-दर्शन एकसाथ रहें सदा ।।१६०|| जिसप्रकार सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ वर्तते हैं; उसीप्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक साथ वर्तते हैं ह ऐसा जानना चाहिए। उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ वस्तुत: केवलज्ञान और केवलदर्शन के एक साथ होने को दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है। दृष्टान्त पक्ष में जब बादलों की बाधा न हो, तब आकाश में स्थित सूर्य में जिसप्रकार प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं; उसीप्रकार तीर्थाधिनाथ परमेश्वर भगवान को तीन लोकवर्ती और तीन कालवर्ती स्थावर-जंगम द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक ज्ञेयों में पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान व केवलदर्शन एक साथ वर्तते हैं।
दूसरी बात यह है कि संसारी जीवों के ज्ञान, दर्शन पूर्वक ही होता है। पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि क्षायिकज्ञानवालों के दर्शन और ज्ञान