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शुद्धोपयोग अधिकार
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तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्र
(मंदाक्रांता) बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकार-स्वरस-भरतोत्यन्त-गंभीर-धीरं
पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।७४।। टीका के इस अंश में टीकाकार मुनिराज सहज ज्ञान अर्थात् ज्ञान गुण या उसकी सम्यग्ज्ञानरूप पर्याय को निश्चयनय से स्व-पर प्रकाशक सिद्ध कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयं को जानता है यह उसका स्वप्रकाशकपना हुआ और ज्ञान से भिन्न सुख, श्रद्धा, चारित्रादि अपने गुणों और उनकी पर्यायों को जानता है ह यह उसका परप्रकाशकपना हुआ। इसप्रकार वह अपने द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर निश्चय से भी स्वपरप्रकाशक सिद्ध होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि गाथा, टीका और टीका में समागत छन्द तथा आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के विवेचन से एक बात पूर्णतः स्पष्ट हो रही है कि केवली भगवान का पर को जानना असत्यार्थ नहीं है; उनके पर को जानने को व्यवहार तो मात्र इसलिए कहा जाता है कि वे पर को तन्मय होकर नहीं जानते, वे उसमें लीन नहीं होते, उनका उनमें अपनापन नहीं है।
वस्तुतः तन्मय होकर जानने का अर्थ उनमें अपनेपन पर्वक जानना होता है। केवली भगवान का या किसी भी ज्ञानी धर्मात्मा का परपदार्थों में अपनापन नहीं होता; न तो वे उसे अपना जानते हैं, न अपना मानते हैं और न उनमें लीन होते हैं; मात्र जानते हैं। उनके इस स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए लगभग सर्वत्र ही यह कहा गया है कि वे परपदार्थों को तन्मय होकर नहीं जानते। उनके पर को जानने को व्यवहार तो मात्र इसीलिए कहा गया है। वे उन्हें जानते ही नहीं हैं ह्र ऐसा अभिप्राय उनका कदापि नहीं है।
निश्चय से स्व-पर प्रकाशक की बात आतमद्रव्य की अपेक्षा ज्ञान गुण या उसकी सम्यग्ज्ञानरूप पर्याय पर भली प्रकार घटित होता है; क्योंकि सुखादि गुण और उनकी पर्यायें ज्ञानगुण या उसकी सम्यग्ज्ञानरूप पर्याय से कथंचित् भिन्न हैं, पर आत्मा से नहीं; क्योंकि आत्मा में तो सभी स्व के रूप में ही समाहित हैं। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जब ज्ञान व्यवहारनय से सभी को जानता है तो उसमें पर के साथ स्व भी आ जाता है। अत: वह व्यवहार से भी स्व-पर प्रकाशक है। इसप्रकार ज्ञान निश्चय और व्यवहार ह्न दोनों से ही स्व-पर प्रकाशक है; प्रमाण से तो स्व-पर प्रकाशक है ही।।१५९|| १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १९२