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नियमसार
मंदाक्रांता
त्यक्त्वा संगं जननमरणांतकहेतुं समस्तं कृत्वा बुद्ध्या हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम् । स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयाम: ।। २६९।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( वीर छन्द )
जनम-मरण का हेतु परिग्रह अरे पूर्णतः उसको छोड़ । हृदय कमल में बुद्धिपूर्वक जगविराग में मन को जोड़ || परमानन्द निराकुल निज में पुरुषारथ से थिर होकर ।
मोह क्षीण होने पर तृणसम हम देखें इस जग की ओर || २६९ || जन्म-मरणरूपी रोग के कारणभूत समस्त परिग्रह को छोड़कर, हृदय कमल में बुद्धिपूर्वक पूर्ण वैराग्य भाव धारण करके, सहज परमानन्द से अव्यग्र अनाकुल निजरूप में पुरुषार्थपूर्वक स्थित होकर, मोह के क्षीण होने पर हम इस लोक को सदा तृण समान देखते हैं ।
ध्यान देने की बात यह है कि टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इस छन्द में उत्तम पुरुष में अत्यन्त स्पष्टरूप से लिख हैं कि हम सम्पूर्ण लोक को तृणवत देखते हैं। यद्यपि यह बात भी सत्य हो सकती है, होगी ही; तथापि छन्द का मूल भाव यही है कि जिसका मोह क्षीण हो गया है; उन वीतरागी भावलिंगी मुनिराजों की दृष्टि में यह सम्पूर्ण जगत तृणवत् तुच्छ है। उन्हें इस जगत से कोई अपेक्षा नहीं है।
जबतक किसी व्यक्ति को यह सम्पूर्ण जगत, उसका वैभव, घास के तिनके के समान तुच्छ भासित न हो 'उसमें रंचमात्र भी सुख नहीं है' ह्न यह बात अन्तर की गहराई से न उठे; तबतक वह जगत के इस वैभव को ठुकरा कर, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति का त्याग कर नग्न दिगम्बर मुनिदशा कैसे स्वीकार कर सकता है ?
यदि कोई व्यक्ति लौकिक सुख की कामना से, यश के लोभ से या अज्ञान से नग्न दिगम्बर दशा धारण करता है तो ऐसे व्यक्ति को अष्टपाहुड में नटश्रमण कहा है ।
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार नट विभिन्न वेष धारण करता है; उसीप्रकार इसने भी नग्न दिगम्बर दशा धारण की है; अतः यह सच्चा दिगम्बर मुनि नहीं है ।। २६९।।
यह निश्चय परमावश्यक अधिकार के उपसंहार की गाथा है। इसमें कहा गया है कि आजतक जो भी महापुरुष केवली हुए हैं; वे सभी उक्त निश्चय आवश्यक को प्राप्त करके ही हुए हैं।