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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
( शालिनी ) अस्मिन् लोके लौकिक: कश्चिदेकः लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम् । गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति ।। २६८ ।।
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मूल गाथा में तो परसंग छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगने की बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कही है; पर न जाने क्यों टीकाकार परसंग को छोड़ने की बात कहकर ही बात समाप्त कर देते हैं; ज्ञाननिधि को भोगने की बात ही नहीं करते ।
'हम आत्मज्ञानी हैं' ह्र इस बात का ढिढोरा पीटनेवालों को इस प्रकरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि यदि हमें आत्मानुभूतिरूप निधि की प्राप्ति हो गई है तो उसे गुप्त रहकर क्यों नहीं भोगते, उसका ढ़िढोरा क्यों पीटते हैं ? ।। १५७।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
हरिगीत ) पुण्योदयों से प्राप्त कांचन आदि वैभव लोक में । गुप्त रहकर भोगते जन जिस तरह इस लोक में ।।
उस तरह सद्ज्ञान की रक्षा करें धर्मातमा ।
सब संग त्यागी ज्ञानीजन सद्ज्ञान के आलोक में || २६८||
इस लोक में कोई एक लौकिकजन पुण्योदय से प्राप्त स्वर्णादि धन के समूह को गुप्त रहकर वर्तता है, भोगता है; उसीप्रकार परिग्रह रहित ज्ञानी भी अपनी ज्ञाननिधि की रक्षा करता है।
यद्यपि उक्त छन्द में एक प्रकार से गाथा की बात को ही दुहरा दिया गया है; तथापि गाथा और छन्द की बात में कुछ अन्तर भी है।
गाथा में निजनिधि को भोगने की बात है, पर छन्द में निजनिधि की रक्षा करने की बात कही गई है और टीका में मात्र परसंग छोड़ने की ही बात आती है ।
गाथा, टीका और कलश (छन्द) ह्र तीनों में जो बात मूलत: कही गई है; उसका भाव मात्र इतना ही है कि सम्यक्त्व या आत्मानुभूति दर्शन की चीज है, प्रदर्शन की नहीं । तात्पर्य यह है कि यदि तुम्हें आत्मानुभूति हो गई है, अतीन्द्रिय-आनन्द की प्राप्ति हो गई है तो फिर शान्ति से एकान्त में उसे क्यों नहीं भोगते, उसका प्रदर्शन क्यों करते हो ?