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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
( मंदाक्रांता )
असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्नघजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।। २६४।।
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यह बात साधारण मुनिराजों की ही नहीं है, अपितु महान वैरागी, परद्रव्य से विमुख, स्वद्रव्य ग्रहण में चतुर, देहमात्र परिग्रह के धारी पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे मुनि शार्दूलों से यह बात कही जा रही है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव यह बात स्वयं को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं। वे भले ही यह बात स्वयं से कहे रहे हों, तथापि सभी मुनिराजों के लिए अनुकरणीय है ।। १५४।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
पापमय कलिकाल में जिननाथ के भी मार्ग में । मुक्ति होती नहीं यदि निजध्यान संभव न लगे ॥
तो साधकों को सतत आतमज्ञान करना चाहिए ।
निज त्रिकाली आत्म का श्रद्धान करना चाहिए || २६४||
इस असार संसार में पाप की बहुलतावाले कलिकाल के विलास में निर्दोष जिननाथ के मार्ग में भी मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में आत्मध्यान कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि ध्यान की विरलता है। शुक्लध्यान तो है ही नहीं, निश्चय धर्मध्यान भी विरल है ।
ऐसी स्थिति में निर्मल बुद्धिवालों को भवभय को नाश करनेवाले निज के आत्मा का श्रद्धान करना चाहिए, उसे जानना चाहिए और उसमें ही अपनापन स्थापित करना चाहिए ।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जब इस पंचमकाल में जैनदर्शन में भी मुक्ति नहीं है तो फिर अन्यत्र होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी स्थिति में यदि हमें आत्मध्यान दुर्लभ लगता है तो फिर कम से कम हमें उक्त सही मार्ग का श्रद्धान तो करना ही चाहिए || २६४ ॥
विगत गाथा में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहने के उपरान्त कि यदि कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमणादि करो, अन्यथा उसका श्रद्धान करो; अब इस गाथा में जिनागमकथित निश्चय प्रतिक्रमणादि करने की प्रेरणा दे रहे हैं।