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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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अन्तरबााजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा।
जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ।।१५०।। बाह्याभ्यन्तरजल्पनिरासोऽयम् । यस्तु जिनलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादिबहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चककारेति स बहिरात्मा जीव इति । स्वात्मध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तर्मुखः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्त विकल्पाजालकेषु कदाचिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः साक्षादंतरात्मेति।। तथा चोक्तं श्रीमद्मृतचन्द्रसूरिभिः ।
(वसंततिलका) स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।७१।। जो जिनलिंगधारी संत अन्तर्बाह्य जल्प में वर्तता है; वह बहिरात्मा है और जो जल्पों में नहीं वर्तता है; वह अन्तरात्मा कहलाता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यह बाह्य और अन्तरजल्प का निराकरण है। जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्य कर्म की वांछा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और स्तवन आदि बहिर्जल्प करता है और अशन (भोजन) शयन (सोना) गमन (चलना) और स्थिति (स्थिर रहना-ठहरना) आदि में सत्कार आदि की प्राप्ति का लोभी वर्तता हुआ अन्तर्जल्प में मन को लगाता है; वह जीव बहिरात्मा है। निज आत्मा के ध्यान में परायण रहता हुआ सम्पूर्णतः अन्तर्मुख रहकर जो तपोधन प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त विकल्पजालों में कभी भी नहीं वर्तता; वह परमतपोधन साक्षात् अन्तरात्मा है।"
गाथा में तो सीधी, सरल व सहज बात कही है कि जो अन्तर्बाह्य जल्पों में वर्तता है, वह बहिरात्मा है और जो इनसे अलिप्त है, वह अन्तरात्मा है; पर टीका में अन्तर्बाह्य विकल्पों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पुण्यकर्म की वांछा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और स्तवनादि करने को बहिर्जल्प तथा भोजन, सोना, चलना और ठहरने आदि की प्राप्ति का लोभी होकर प्रवर्तने को अन्तर्जल्प कहा है। लगता है कि यहाँ वचनात्मक प्रवृत्ति को बहिर्जल्प और मानसिक चिन्तन को अंतर्जल्पकहना चाहते हैं।।१५०|| १.समयसार : आत्मख्याति, छन्द ९०