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यो हि विमुक्तैहिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति ।
( मंदाक्रांता )
आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृक्शीलमोहो यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः । मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशि: तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम् ।। २६२ ।।
नियमसार
ऐहिक व्यापार अर्थात् सांसारिक कार्य छोड़ दिये हैं जिसने ह्र ऐसा जो मोक्ष का अभिलाषी महामुमुक्षु, सभी इन्द्रियों के व्यापार को छोड़ देने से निश्चय प्रतिक्रमण आदि सत् क्रियाओं को निरन्तर करता है । इसकारण वह परम तपोधन निजस्वरूप विश्रान्त लक्षण परम वीतराग चारित्र में स्थित है ।"
इस गाथा और उसकी टीका में उत्कृष्ट अन्तरात्मा १२वें गुणस्थान वर्ती पूर्ण वीतरागी महामुमुक्षु मुनिराज का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि उन्होंने समस्त सांसारिक कार्यों को तिलांजलि दे दी है, उनका इन्द्रियों का व्यापार पूर्णतः रुक गया है, निश्चय प्रतिक्रमणादि समस्त आवश्यक क्रियायें विद्यमान हैं। इसप्रकार वे परम तपोधन निज स्वरूप में विश्रान्ति लक्षणवाले वीतराग चारित्र में पूर्णतः स्थित हैं।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार हैह्न ( रोला )
दर्शन अर चारित्र मोह का नाश किया है ।
भवसुखकारक कर्म छोड़ संन्यास लिया है। मुक्तिमूल मल रहित शील-संयम के धारक ।
समरस- अमृतसिन्धु चन्द्र को नमन करूँ मैं || २६२||
नष्ट हो गये हैं दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके ह्र ऐसा अतुल महिमावाला बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा; संसारजनित सुख के कारण भूत कर्म को छोड़कर, मुक्ति के मूल मलरहित चारित्र में स्थित है, चारित्र का पुंज है। समतारसरूपी अमृतसागर को उछालने में पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान उस आत्मा को मैं वंदन करता हूँ ।
इस छन्द में भी बारहवें गुणस्थानवाले पूर्ण वीतरागी मुनिराजों की भक्तिभाव पूर्वक वंदना की गई है ।। २६२।।