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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।।१५२।।
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् ।
तेन तु विरागचरिते श्रमणोभ्युत्थितो भवति ।।१५२।। परमवीतरागचारित्रस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्तम् ।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज लिखते हैं कि दूसरी बात यह है कि अब एक छन्द के माध्यम से केवल शुद्ध निश्चयनय का स्वरूप कहते हैं। शुद्ध निश्चयनय का स्वरूप बतानेवाले उक्त छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ।
(वीरछन्द) बहिरातम-अन्तरातम के शद्धातम में उठे विकल्प। यह कुबुद्धियों की परिणति है ये मिथ्या संकल्प-विकल्प। ये विकल्प भवरमणी को प्रिय इनका है संसार अनन्त ।
ये सुबुद्धियों को न इष्ट हैं, उनका आया भव का अन्त ||२६१|| शुद्ध आत्मतत्त्व में 'यह बहिरात्मा है, यह अन्तरात्मा है' ह्न ऐसा विकल्प कुबुद्धियों को होता है। संसाररूपी रमणी (रमण करानेवाली) को प्रिय यह विकल्प, सुबुद्धियों को नहीं होता।
देखो, आचार्यदेव अनेक गाथाओं में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का भेद समझाते आ रहे हैं और यहाँ टीकाकार मुनिराज यह कह रहे हैं कि इसप्रकार के विकल्प कुबुद्धियों को होते हैं, सुबुद्धियों को नहीं। तात्पर्य यह है कि इसप्रकार के विकल्प भी हेय ही हैं, उपादेय नहीं; ज्ञानी जीव इन विकल्पों को भी बंध का कारण ही मानते हैं, मुक्ति का कारण नहीं।
विगत गाथाओं में बहिरात्मा और अंतरात्मा का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरांत अब इस गाथा में वीतराग चारित्र में आरूढ संत की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(हरिगीत) प्रतिक्रमण आदिकक्रिया निश्चयचरितधारक श्रमणही।
हैं वीतरागी चरण में आरूढ़ केवलि जिन कहें।।१५२|| स्ववश सन्त प्रतिक्रमणादि क्रियारूप निश्चयचारित्र निरन्तर धारण करता है; इसलिए वह श्रमण वीतरागचारित्र में स्थित है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन का स्वरूप कहा है।