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नियमसार
विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
(वसंततिलका) कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ। ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये ।।२६०।। किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते ह्न
(अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्प: कुधियामयम् ।
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१।। धर्मध्यान और शुद्ध निश्चय शुक्लध्यान द्वारा नित्य ध्याते हैं। इन दो ध्यानों रहित द्रव्यलिंग धारी द्रव्य श्रमण बहिरात्मा हैं। हे शिष्य तू ऐसा जान।"
देखो, यहाँ आचार्यदेव और टीकाकार मुनिराज निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ही उपादेय बताने के लिए इन ध्यानों से रहित मुनिराजों को न केवल द्रव्यलिंगी, अपितु बहिरात्मा कह रहे हैं।
आशय यह है कि जिनके निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान बिल्कुल हैं ही नहीं; वे श्रावक और मुनिराज बहिरात्मा हैं; वे नहीं कि जिनके आहार-विहारादि के काल में निश्चय धर्मध्यान व शुक्लध्यान नहीं हैं।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव जो छन्द लिखते हैं; उसका पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(वीरछन्द) धरम-शुकलध्यान समरस में जो वर्ते वे सन्त महान | उनके चरणकमल कीशरणा गहें नित्य हम कर सन्मान || धरम-शुकल से रहित तुच्छ मुनि कर न सके आतमकल्याण।
संसारी बहिरातम हैं वे उन्हें नहीं निज आतमज्ञान ||२६०|| जो कोई मुनि वस्तुत: निर्मल धर्म व शुक्लध्यानामृतरूप समरस में निरन्तर वर्तते हैं; वे अन्तरात्मा हैं और जो तुच्छ मुनि इन दोनों ध्यानों से रहित हैं; वे बहिरात्मा हैं। मैं उन समरसी अन्तरात्मा मुनिराजों की शरण लेता हूँ। ___ इस छन्द में टीकाकार मुनिराज निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में वर्तनेवाले उत्कृष्ट अंतरात्मा मुनिराजों की शरण में जाने की बात कर रहे हैं ।।२६०।।