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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्र
अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा । बहिरात्मानयोर्देहकरणाद्युदितात्मधीः ।।६९।।' जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरत: सुद्दक् ।
प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमोमध्यस्तयोः ।। ७० ।। २
उक्त सम्पूर्ण कथन से तो यही प्रतिफलित होता है कि यह निश्चय परम श् अर्थात् स्ववशपना मात्र मुनिराजों के ही नहीं होता; अपितु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर १२वें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही भावलिंगी सन्तों तक सभी को अपनीअपनी भूमिकानुसार होता है; क्योंकि ये सभी अन्तरात्मा हैं। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थानवाले बहिरात्मा हैं ||१४९ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्न मार्गप्रकाश नामक ग्रन्थ में भी कहा है' ह्न ऐसा कहकर दो अनुष्टुप् छन्द उद्धृत करते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र रोला ) परमातम से भिन्न सभी जिय बहिरातम अर |
अन्तर आतमरूप कहे हैं दो प्रकार के ॥ देह और आतम में धारे अहंबुद्धि जो ।
वे बहिरात जीव कहे हैं जिन आगम में || ६९ || अन्तरात्मा उत्तम मध्यम जघन कहे हैं।
क्षीणमोह जिय उत्तम अन्तर आतम ही है । अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सब जघन कहे हैं।
इन दोनों के बीच सभी मध्यम ही जानो ॥ ७० ॥
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अन्य समय अर्थात् परमात्मा को छोड़कर बहिरात्मा और अन्तरात्मा ह्न इसप्रकार जीव दो प्रकार के हैं। उनमें शरीर और आत्मा में आत्मबुद्धि धारण करनेवाला, अपनापन स्थापित करनेवाला बहिरात्मा है ।
जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अन्तरात्मा तीन प्रकार के हैं । उनमें अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं और क्षीणमोही उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं और इनके मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा हैं ।
१. मार्गप्रकाश ग्रंथ में उद्धृत श्लोक
२. वही