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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
३८५ इत्यर्थः। पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति ।
(मंदाक्रांता) आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम् । सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण: वाचांदूरं किमपि सहजंशाश्वतंशंप्रयाति ।।२५६।।
(अनुष्टुभ् ) स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् ।
इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मणः ।।२५७।। इसलिए हे मुनिवरो! पहले कहे गये स्ववश परमजिन योगीश्वर के स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान व शुक्लध्यानरूप निश्चय परम आवश्यक को सदा अवश्य करो।"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि जब लोक में व्यवहार आवश्यकों से भ्रष्ट सन्तों को भ्रष्ट कहा जाता है तो फिर निश्चय आवश्यकों से भ्रष्ट तो भ्रष्ट हैं ही। कदाचित् कोई व्यवहार आवश्यक बाह्य रूप में सही भी पालता हो; किन्तु निश्चय परम आवश्यक से रहित है तो वह भी भ्रष्ट ही है ।।१४८।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं दो छन्द लिखते हैं; जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न।
(दोहा) आवश्यक प्रतिदिन करो अघ नाशक शिव मूल ।
वचन अगोचर सुख मिले जीवन में भरपूर ||२५६।। प्रत्येक आत्मा को अघ समूह के नाशक और मुक्ति के मूल एक सहज परम-आवश्यक को अवश्य करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से निजरस के विस्तार से पूर्ण भरा होने से पवित्र एवं सनातन आत्मा, वचन-अगोचर सहज शाश्वत सुख को प्राप्त करता है।
इसप्रकार इस छन्द में यह कहा गया है कि यदि वचनातीत शाश्वत करनी है तो इस निश्चय आवश्यक को अवश्य धारण करना चाहिए ।।२५६।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) निज आतम का चिन्तवन स्ववश साधुके होय । इस आवश्यक करम से उनको शिवसुख होय ||२५७||