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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः ह्न
(मालिनी) यदि चलति कथंचिन्मानसं स्वस्वरूपाद्
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसंगः। तदनवरत-मंत-मग्न-संविग्न-चित्तो
भवभवसिभवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।६८॥ तथा हि ह्र
(शार्दूलविक्रीडित) यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं मुक्तिश्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धवेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा
सोयं त्यक्तबहिःक्रियो मुनिपति: पापाटवीपावकः ।।२५५।। आत्मा का ही चिन्तन-मनन, ज्ञान-ध्यान करो; क्योंकि एकमात्र इससे ही परमावश्यकरूप सामायिक गुण पूर्ण होता है।।१४७||
इसके बाद 'तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवै ह्न तथा श्री योगीन्द्रद्रेव ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(सोरठा) प्रगटे दोष अनंत, यदि मन भटके आत्म से।
यदि चाहो भव अंत, मगन रहो निज में सदा ||६८|| हे योगी! यदि तेरा मन किसी कारण से निजस्वरूप से विचलित हो, भटके तो तुझे सर्वदोष का प्रसंग आता है। तात्पर्य यह है कि आत्म स्वरूप से भटकने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिए तू सदा अन्तर्मग्न और विरक्त चित्तवाला रह; जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धाम का अधिपति बनेगा, तुझे मुक्ति की प्राप्ति होगी। इसके बाद एक छंद टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(रोला) अतिशय कारण मुक्ति सुन्दरी के सम सुख का।
निज आतम में नियत चरण भवदुखका नाशक|| जो मुनिवर यह जान अनघ निज समयसार को।
जाने वे मुनिनाथ पाप अटवी को पावक ||२५५|| १. अमृताशीति, श्लोक ६४