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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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(आर्या) अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे।
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत् ।।२४४।। जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ।।१४४।।
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत् ।।१४४।। अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम् । यः खल जिनेन्द्रवदनारविन्दबस जिनेन्द्र भगवान से कुछ ही कम हैं। तात्पर्य यह है कि वे अल्पकाल में ही भगवान बननेवाले हैं।।२४३।। पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(ताटंक) अतःएव श्री जिनवर पथ में स्ववश मनि शोभा पाते।
और अन्यवश मुनिजन तो बसचमचों सम शोभा पाते।।२४४|| इसीलिए स्ववश मुनि ही मुनिवर्ग में शोभा पाता है; अन्यवश मुनि तो उस चापलूस नौकर के समान है कि जो भले ही अपनी चापलूसी के कारण थोड़ी-बहुत इज्जत पा जाता हो, पर शोभा नहीं देता।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि स्ववश मनिराज ही शोभास्पद हैं, अन्यवश नहीं ।।२४४।।
विगत गाथाओं में स्ववश और अन्यवश मुनिराज की चर्चा चल रही है। इस गाथा में भी उसी बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ गंभीर प्रमेय उपस्थित करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ।
(हरिगीत) वे संयमी भी अन्यवश हैं जो रहें शभभाव में।
उन्हें आवश्यक नहीं यह कथन है जिनेदव का ।।१४४।। जो संयमी जीव शुभभाव में प्रवर्तता है; वह वस्तुत: अन्यवश है; इसलिए उसे आवश्यकरूप कर्म नहीं है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "इस गाथा में भी अन्यवश अशुद्ध अन्तरात्मा जीव का लक्षण कहा गया है। जो