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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं। अप्पवसो सो होदिहु तस्स दुकम्मं भणंति आवासं ॥१४६।। परित्यक्त्वा परभवं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम् ।
आत्मवशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम् ।।१४६।। अत्र हिसाक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्तम् । यस्तु निरुपरागनिरंजनस्वभावत्वादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य कायकरणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुण्टाकं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्तः।
तस्याभेदानुपचाररत्नत्रययात्मकस्य निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति।
जिसप्रकार जबतक ईंधन है, तबतक अग्नि भड़कती ही है; उसीप्रकार जबतक सांसारिक कार्यों की चिन्ता में यह जीव उलझा रहेगा; तबतक संसार परिभ्रमण होगा ही। अत: जिन्हें संसार परिभ्रमण से मुक्त होना हो, वे सन्तगण सांसारिक चिन्ताओं से पूर्णत: मुक्त रहें।।२४६||
अब इस गाथा में साक्षात् स्ववश मुनिराज कैसे होते हैं ह्न यह बताते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) परभाव को परित्याग ध्यावे नित्य निर्मल आतमा ।
वह आत्मवश है इसलिए ही उसे आवश्यक कहे ||१४६|| परभावों का त्याग करके जो निर्ग्रन्थ मुनिराज अपने निर्मलस्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है, वह वस्तुतः आत्मवश है। उसे आवश्यक कर्म होते हैं ह्न ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
“यहाँ साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप कहा है। निरुपराग निरंजन स्वभाव वाले होने के कारण जो परमजिनयोगीश्वर श्रमण औदयिकादि परभाव को त्याग कर, इन्द्रिय, काया और वाणी के अगोचर सदा निरावरण होने से निर्मलस्वभाववाले और पापरूपी वीर शत्रुओं की सेना के ध्वजा को लूटनेवाले निजकारण परमात्मा को ध्याता है, उस श्रमण को आत्मवश श्रमण कहा गया है।
उस अभेद-अनुपचार रत्नत्रय को धारण करनेवाले परमजिनयोगीश्वर श्रमण को समस्त बाह्य क्रियाकाण्ड आडम्बर में विविध विकल्पों के महाकोलाहल से प्रतिपक्ष महा आनन्दानन्दप्रद निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान स्वरूप परमावश्यक कार्य होता है।"