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तथा चोक्तम् ह्न
तथा हि ह्र
( अनुष्टुभ् ) आत्मकार्यं परित्यज्य दृष्टादृष्टविरुद्धया । यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया । । ६७ ।। १
( अनुष्टुभ् ) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृति: । यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।। २४६ ।।
उक्त गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान की वाणी में प्रतिपादित द्रव्य-गुण- पर्याय के चिन्तन-मनन में जुटे रहनेवाले मुनिराज भी यदि समयसारस्वरूप निज आत्मा में अपने चित्त को नहीं लगाते, उसमें जमते रमते नहीं हैं तो वे इसकारण ही परवश हैं; उनके निश्चय परम आवश्यक नहीं है || १४५ ॥
नियमसार
इसके बाद टीकाकार मुनिराज ' तथा चोक्तं ह्न तथा कहा भी है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं, जो इसप्रकार हैह्र
(दोहा)
ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध ।
आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ||६७||
आत्मकार्य को छोड़कर दृष्ट (प्रत्यक्ष) और अदृष्ट (परोक्ष) से विरुद्ध चिन्ता से, चिन्तवन से ब्रह्मनिष्ठ मुनियों को क्या प्रयोजन है ?
इस कलश में यह कहा गया है कि अपने आत्मा के ज्ञान-ध्यान को छोड़कर जो कार्य प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से सिद्ध नहीं होते ह्र ऐसे व्यर्थ के कार्यों में उलझने से किस कार्य की सिद्धि होती है। विशेष आत्मज्ञानी मुनिराजों को तो इनमें से किसी स्थिति में उलझ ठीक नहीं है ।। ६७ ।।
(दोहा)
जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर |
जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूरा ||२४६ ॥
जिसप्रकार जबतक ईंधन हो, तबतक अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है; उसीप्रकार जबतक जीवों को चिन्ता है, तबतक संसार है।
१. ग्रंथ का नाम एवं आचार्य का नाम अनुपलब्ध है।