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नियमसार
ग
(हरिणी) त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो
__भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् । सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः ।।२४५।। ? क्योंकि अन्तरात्मा तो सम्यग्दृष्टि ही होते हैं; पर अन्तरात्मा के साथ यहाँ अशुद्ध विशेषण लगा हुआ है और यह भी कहा है कि वह निश्चयधर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को नहीं जानता। उक्त स्थिति में वह अज्ञानी जैसा लगने लगता है।
यह तो साफ ही है कि वह स्ववश नहीं है, परवश है। परवश के निश्चय परमावश्यक नहीं होते ह्न यह भी स्पष्ट है।
उक्त सम्पूर्ण स्थिति पर गंभीर मंथन करने पर यही स्पष्ट होता है कि यहाँ भी उसीप्रकार का प्रस्तुतीकरण है, जैसाकि समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में स्वसमय और परसमय के संदर्भ में किया गया है। यहाँ प्ररूपित परवश श्रमण श्रद्धा के दोषवाला अज्ञानी नहीं है, अपितु शुभोपयोगरत ज्ञानी जीव ही है।
स्वसमय और परसमय के संदर्भ में विशेष जानकारी के लिए समयसार अनुशीलन भाग १, पृ. २५ से ३५ तक एवं प्रवचनसार अनुशीलन भाग २, पृ. ११ से २२ तक अध्ययन करना चाहिए।।१४४।। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(ताटंक) अतः मुनिवरो देवलोक के क्लेशों से रति को छोड़ो।
सुख-ज्ञान पूर नय-अनय दूर निज आतम में निज को जोड़ो।।२४५|| हे मुनिपुंगव ! देवलोक के क्लेश के प्रति रति छोड़ो और मुक्ति के कारण का कारण जो सहज परमात्मा है, उसको भजो। वह सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण है तथा नय और अनय के समूह से दूर है।
ध्यान रहे यहाँ त्रिकाली ध्रुव सहज परमात्मा को मुक्ति के कारण का कारण कहा गया है; क्योंकि मुक्ति का कारण शुद्धोपयोग है और उस शुद्धोपयोग का कारण कारणपरमात्मा है।
उक्त कलश में स्वर्ग सुखों के प्रति आकर्षण को छोड़ने और अपने त्रिकाली ध्रुव सहज आत्मा को भजने का उपदेश दिया गया है।।२४५||