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नियमसार
विनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन् शुभोपयोगे चरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन् स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णनसमुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यानविविक्तशयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यानशुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्युसर्गनामधेयेषु चाभ्यंतरतपोनुष्ठानेषु च कुशलवृद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्तः। __ अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादिक्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्नभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादाश्रमण जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए परम आचार शास्त्र के अनुसार सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोग में रहता है, प्रवर्तता है; व्यावहारिक धर्मध्यान में रहता है; इसलिए चरण करण प्रधान है, आचरण आचरने में प्रधान है; स्वाध्याय काल का अवलोकन करता हुआ स्वाध्याय करता है। प्रतिदिन भोजन करके चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) करता है; तीन संख्याओं के समय अर्थात् प्रातः, दोपहर और सायंकाल भगवान अरहंत परमेश्वर की लाखों स्तुतियाँ मुख से बोलता है; तीन काल नियम परायण रहता है; इसप्रकार दिन-रात ग्यारह क्रियाओं में तत्पर रहता है; पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण सुनने से उत्पन्न संतोष से जिसका धर्मशरीर रोमांचित होता है; अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश नाम के छह बाह्य तपों में जो सदा उल्लसित रहता है; स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरण से च्युत होने पर पुन: उनमें स्थापनरूप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक आभ्यन्तर तपों के अनुष्ठान में जो कुशलबुद्धिवाला है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन मोक्ष के साक्षात् कारणरूप स्वात्माश्रित आवश्यक कर्म को निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्मध्यान को,शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है।
जिसका चित्त तपश्चरण में लीन है, ऐसा वह अन्यवश श्रमण देवलोकादि के क्लेश की परम्परा प्राप्त होने से शुभोपयोग के फलस्वरूप प्रशस्तरागरूप अंगारों से सिकता हुआ,