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( शिखरिणी )
तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् । परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः ।। २४२ ।। ( आर्या )
अन्यवश: संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङनित्यम् । स्ववशो जीवन्मुक्त: किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेष: ।। २४३ ।।
तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
नियमसार
( ताटंक )
मतिमानों को अतिप्रिय एवं शत इन्द्रों से अर्चित तप ।
उसको भी पाकर जो मन्मथ वश है कलि से घायल वह || २४२ ॥
सौ इन्द्रों से भी सतत् वंदनीय तपश्चर्या लोक में सभी बुद्धिमानों को प्राणों से भी प्यारी होती है। ऐसी तपश्चर्या प्राप्त करके भी जो जीव कामान्धकार सहित सांसारिक सुखों में रमता है; वह स्थूलबुद्धि कलिकाल से मारा हुआ है।
विगत छन्द के समान इस छन्द में भी यही कहा गया है कि जो तप शत इन्द्रों से वंदनीय है; उसे प्राप्त कर भी जो विषयों में रमता है, वह कलयुग का मारा हुआ है, अभागा है।
तात्पर्य यह है कि तप एक महाभाग्य से प्राप्त होनेवाला आत्मा का सर्वोत्कृष्ट धर्म है; उसे शास्त्रों में निर्जरा का कारण कहा गया है। ऐसे परमतप को प्राप्त करके भी जो विषयों में रमते हैं, उनके अभाग्य की महिमा तो हम से हो नहीं सकती || २४२||
चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार
है
(ताटंक )
न होकर भी अरे अन्यवश संसारी है, दुखमय है।
और स्वजन सुखी मुक्त रे बस जिनवर से कुछ कम है॥२४३॥
जो जीव अन्यवश है, वह भले ही मुनिवेश धारी हो, तथापि संसारी है, संसार में भटकनेवाला है; सदा ही दुखी है, दुःख भोगनेवाला है और जो जीव स्ववश है, वह जीवन्मुक्त है; जिनेन्द्र भगवान से थोड़ा ही कम है, एक प्रकार से जिनेन्द्र समान ही है ।
इस छन्द में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए एकदम साफ शब्दों में कह दिया गया है कि जो जीव अन्यवश हैं; वे भले मुनिवेशधारी हों तो भी संसारी हैं, संसार समुद्र में गोता लगाने वाले हैं और जो जीव स्ववश हैं; वे जीवन्मुक्त हैं। वे जिनेन्द्र भगवान के समान ही हैं;