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परमसमाध्यधिकार
जो दु अटुं च रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२९।।
यस्त्वार्तं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः।
___तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२९।। आर्तरौद्रध्यानपरित्यागात् सनातनसामायिकव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । यस्तु नित्यनिरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपनियतशुद्धनिश्चयपरमवीतरागसुखामृतपानपरायणो जीव: तिर्यग्योनिप्रेतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्त्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशःसंत्यजति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्धं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति ।
यह आत्मा स्वभाव से तो विकल्पातीत है ही और पर्याय में भी विकल्पातीतदशा को भी प्राप्त हो गया हो तो फिर उसमें विधि-निषेध संबंधी विकल्पों को अवकाश ही कहाँ रहता है ?।।२१३।।
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि जो आर्त और रौद्रध्यान से रहित है; उसे सामायिक सदा ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(हरिगीत) आर्त एवं रौद्र से जो सन्त नित वर्जित रहें।
उन आत्मध्यानी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१२९|| जो आर्त्त और रौद्रध्यान को सदा छोड़ता है; उसे सामायिक व्रत स्थायी है ह ऐसा केवली शासन में कहा गया है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह आर्त और रौद्रध्यान के परित्याग द्वारा सनातन सामायिक व्रत के स्वरूप का कथन है। नित्य निरंजन निजकारणपरमात्मा के स्वरूप में नियत, शुद्धनिश्चय परमवीतराग सुखामृत के पान में परायण जो जीव तिर्यंच योनि, प्रेतवास व नरकादि गति की योग्यता के हेतुभूत आर्त्त व रौद्र ह्न इन दो ध्यानों को नित्य छोड़ता है; उसे वस्तुत: केवलदर्शन सिद्ध शाश्वत सामायिक व्रत है।"
इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना और निदान के निमित्त से जो खेदरूप परिणाम होते हैं, वे आर्तध्यान हैं और निर्दयता/क्रूरता में होने वाले आनन्दरूप परिणाम रौद्रध्यान हैं। आर्तध्यान को शास्त्रों में तिर्यंच गति का कारण बताया गया है और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण कहा गया है। यहाँ इनके फल में प्रेतयोनि को भी जोड़ दिया है। १. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ६, सूत्र १५ व १६ की टीका