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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण । तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ।।१४३।।
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन ।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत् ।।१४३।। __इसके उपरांत टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) निज आतम से भिन्न किसी के वश में न हो।
स्वहित निरत योगी नित ही स्वाधीन रहेजो।। दुरिततिमिरनाशक अमूर्त ही वह योगी है।
यही निरुक्तिक अर्थ सार्थक कहा गया है ।।२३९।। स्वहित में लीन रहता हुआ कोई योगी शुद्धजीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता। उसका इसप्रकार सुस्थित रहना ही निरुक्ति है, व्युत्पत्ति से किया गया अर्थ है। ऐसा होने से अर्थात् पर के वश न होकर स्व में लीन रहने से दुष्कर्मरूपी अंधकार का नाश करनेवाले उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होने से अमूर्तपना होता है।
उक्त छन्द का सार यह है कि आत्मकल्याण में पूर्णत: समर्पित योगी अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी समर्पित नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वह सदा स्ववश ही रहता है, अन्य के वश नहीं होता। दुष्कर्म का नाश करनेवाला ऐसा योगी सदा प्रकाशमान ज्ञानज्योति द्वारा अमूर्तिक ही रहता है, मूर्तिक शरीरसे एकत्व-ममत्व से रहित वह आत्मस्थ ही रहता है; फलस्वरूप अमूर्तिक ही है।
तात्पर्य यह है कि आत्मा की आराधना करनेवाला सच्चा योगी अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी एकत्व-ममत्व धारण नहीं करता, किसी अन्य का कर्ता-धर्ता नहीं बनता। उसकी यही वृत्ति और प्रवृत्ति उसे स्ववश बनाती है।।२३९।।
इस निश्चय परम आवश्यक अधिकार की आरंभ की दो गाथाओं में अन्य के वश से रहित स्ववश की चर्चा की; अब इस तीसरी गाथा में अन्यवश की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत ) अशुभभाव सहित श्रमण है अन्यवश बस इसलिये। उसे आवश्यक नहीं यह कथन है जिनदेव का ||१४३||