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नियमसार
(आर्या) इति जिनशासनसिद्ध सामायिकव्रतमणुव्रतं भवति । यस्त्यजति मुनिर्नित्यं ध्यानद्वयमार्तरौद्राख्यम् ।।२१४।। जो दु पुण्णं च पावं च भावं वजेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३०।। जिनके ये आर्त और रौद्रध्यान नहीं होंगे, उनके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होंगे। धर्म और शुक्लध्यान को मोक्ष का कारण कहा गया है। इससे यह सहज ही सिद्ध है कि जिनके आर्त और रौद्रध्यान नहीं होंगे; उनके मोक्षप्राप्ति की हेतुभूत सामायिक सदा होगी ही ।।१२९ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(सोरठा ) जो मुनि छोड़े नित्य आर्त्त-रौद्र ये ध्यान दो।
सामायिकव्रत नित्य उनको जिनशासन कथित||२१४|| इसप्रकार जो मुनिराज आर्त्त और रौद्र नाम के दो ध्यानों को छोड़ते हैं; उन्हें जिनशासन में कहे गये अणुव्रतरूप सामायिक व्रत होता है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि मुनिराजों की सामायिक (आत्मध्यान) को यहाँ अणुव्रत क्यों कहा जा रहा है ?
श्रावकों के बारह व्रतों में एक सामायिक नामक शिक्षाव्रत है और श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी प्रतिमा का नाम भी सामायिक है। उनकी चर्चा यहाँ नहीं हैं।
एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के जो ग्यारह प्रतिमायें होती हैं; उनमें दूसरी प्रतिमा में बारह व्रत होते हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ह इसप्रकार कुल बारह व्रत होते है।
सामायिक नाम का व्रत अणुव्रतों में नहीं है, शिक्षा व्रतों में है। इसलिए यहाँ प्रयुक्त अणुव्रत का संबंध श्रावक के अणुव्रतों से होना संभव ही नहीं है।
जैसा कि आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने कहा कि यहाँ उल्लिखित सामायिक व्रत को अणुव्रत यथाख्यातचारित्र की अपेक्षा कहा है। अत: स्वामीजी का यह कथन आगमसम्मत और युक्तिसंगत ही है।।२१४।।
१. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ९, सूत्र २९