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नियमसार
भूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रयपरिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्तिमासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृत्तिभक्तिर्भवतीति ।
(अनुष्टुभ् ) उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् । संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् । । २२१ ।। ( आर्या ) व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृत्तिभक्तिर्जिनोत्तमैः प्रोक्ता । निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता ।।२२२ ।। निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं । शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्या: ।। २२३ ।।
भलीप्रकार आराधना करके सिद्ध हुए हैं; उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण की परम्परा की हेतुभूत परमभक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है; उस मुमुक्षु को व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति है।"
उक्त गाथा व उसकी टीका में व्यवहारभक्ति का स्वरूप समझाते हुए मात्र यही कहा है कि निश्चयभक्ति के निर्विकल्प स्वरूप को भलीभांति समझनेवाले ज्ञानी श्रावक या छठवेंसातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज जब शुभोपयोग के काल में सिद्ध भगवान की भक्ति-स्तुि उनके केवलज्ञानादि गुणों के आधार पर करते हैं तो उक्त विकल्पात्मक भक्ति-स्तुति को व्यवहारभक्ति कहते हैं। सिद्ध भगवान के गुणों को भलीभांति जानकर उनके गुणानुवाद करने को व्यवहारभक्ति कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान का स्वरूप भलीभांति जानकर मन में उनके गुणों का चिन्तन करना, वचन से उनका गुणगान करना और काया से नमस्कारादि करना व्यवहारभक्ति है ।। १३५।।
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव छह छन्द लिखते हैं; जिनमें आरंभ के तीन छन्दों का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( दोहा )
सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह | मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव || २२१|| सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार । नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ॥ २२२ ॥