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नियमसार
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं । णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं । । १४०।।
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्तिम्।
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्तिम् । । १४० ।। भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम् । अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्द्धमानचरमा: चतुर्विंशतितीर्थंकरपरमदेवा: सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवा: परमेश्वरा: सर्वे एवमुक्तप्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाण
इस छन्द में भी गाथा और टीका में समागत भाव को ही दुहराया गया है। कहा गया है कि उल्टी मान्यतारूप दुराग्रह को छोड़कर जिनवर कथित, गणधरदेव द्वारा निरूपित, आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध, उपाध्यायों द्वारा पढ़ाया गया, मुनिराजों द्वारा जीवन में उतारा गया तथा ज्ञानी श्रावकों द्वारा समझा-समझाया गया एवं भव्यजीवों के आगामी भवों का अभाव करनेवाला यह तत्त्वज्ञान ही परम शरण है। इसमें लगा उपयोग ही योग है।
अतः हम सभी को जिनवाणी का गहराई से अध्ययन कर, उसके मर्म को ज्ञानीजनों से समझ कर, अपने उपयोग को निज भगवान आत्मा के ज्ञान-ध्यान में लगाना चाहिए। सुख व शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है ।। २३० ।।
परमभक्ति अधिकार की इस अन्तिम गाथा में यह बताया जा रहा है कि ऋषभादि सभी जिनेश्वर इस योगभक्ति के प्रभाव से मुक्तिसुख को प्राप्त हुए हैं। अत: हमें भी इसी मार्ग में लगना चाहिए। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार ह्न ( हरिगीत )
वृषभादि जिनवरदेव ने पाया परम निर्वाण सुख ।
इस योगभक्ति से अतः इस भक्ति को धारण करो ॥१४०॥
ऋषभादि जिनेश्वर इस उत्तम योगभक्ति करके निर्वृत्ति सुख को प्राप्त हुए हैं। इसलिए तुम भी इस उत्तम योगभक्ति को धारण करो ।
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टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न "यह भक्ति अधिकार के उपसंहार का कथन है। इस भारतवर्ष में पहले राजा नाभिराज पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक के चौबीसों तीर्थंकर परमदेव सर्वज्ञ- वीतरागी हुए हैं। जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई है ह्र ऐसे ये महादेवाधिदेव परमेश्वर ह्न सभी तीर्थंकर यथोक्त प्रकार से निज आत्मा के साथ संबंध रखनेवाली शुद्ध निश्चय योग की उत्कृष्ट भक्ति करके मुक्त हुए हैं और वहाँ मुक्ति में परम