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नियमसार
(आर्या) वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण । कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२।। अपुनर्भवसुखसिद्ध्यै कुर्वेऽहं शुद्धयोगवरभक्तिम्। संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(शार्दूलविक्रीडित) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः। धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहंलब्ध्वा गरोः सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीने परब्रह्मणि ।।२३४।।
( अनुष्टुभ् ) निर्वतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलपचेतसाम।
सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।। दूसरे व तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(वीरछन्द) ऋषभदेव से महावीर तक इसी मार्ग से मुक्त हुए। इसी विधि से योगभक्ति कर शिवरमणी सुख प्राप्त किये||२३२||
(दोहा ) मैं भी शिवसुख के लिए योगभक्ति अपनाऊँ।
भव भय से हे भव्यजन इसको ही अपनाओ।।२३३|| तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर भगवान तक के सभी तीर्थंकर जिनेश्वर भी इसी मार्ग से योगभक्ति करके मक्तिरूपी वधू के सुख को प्राप्त हए हैं।
मुक्ति सुख की प्राप्ति हेतु मैं भी शुद्धयोग की उत्तम भक्ति करता हूँ। संसार दुःख के भयंकर भय से सभी जीव उक्त उत्तम भक्ति करो।
इन छन्दों में मात्र यही कहा गया है कि ऋषभादि तीर्थंकरों ने इसी मार्ग से मुक्तिसुख को प्राप्त किया है; मैं भी इसी मार्ग पर जाता हूँ और आप सब भी इसी योगभक्ति के मार्ग पर चलो ।।२३२-२३३।।
इसके बाद के चौथे छन्द में टीकाकार मुनिराज परमब्रह्म में लीन होने की भावना व्यक्त करते हैं। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न