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परमभक्ति अधिकार
३६१ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः।
टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मैं भी उसी अनघ अद्वन्दनिष्ठ आत्मा की संभावना कर रहा हूँ, उसी की शरण में जा रहा हैं और आप सभी भव्यात्माओं से अनुरोध करता हूँ कि आप सब भी उसी की शरण में जावें; क्योंकि जो लोग संसार सुरखों से निस्पृही हैं और सच्चे अर्थों में मुमुक्षु हैं, उन्हें मुक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ से क्या प्रयोजन है ?
इसप्रकार हम देखते हैं कि परमभक्ति अधिकार में यही कहा गया है कि निज भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और लीनतारूप निश्चयरत्नत्रय ही परमभक्ति है, निश्चयभक्ति है, निवृत्तिभक्ति है।
यद्यपि व्यवहारनय से मुक्तिगत सिद्धभगवन्तों की गुणभेदरूप भक्ति को भी परमभक्ति कहा गया है; तथापि मुक्ति की प्राप्ति तो अपने आत्मा को निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में स्थापित करनेवाले को ही प्राप्त होती है ।।२३७।।
परमभक्ति अधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्न
"इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमभक्ति अधिकार नामक दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।" ।
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में परमभक्ति अधिकार नामक दसवाँ श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है।
अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुये सब क्या हैं ? आखिर एक आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं न? एक निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न हुई अवस्थाएँ हैं न? तो फिर हम इनकी शरण में क्यों जावें, हम तो उस भगवान आत्मा की ही शरण में जाते हैं, जिसकी ये अवस्थाएँ हैं, जिसके आश्रय से ये अवस्थायें उत्पन्न हुई हैं। सर्वाधिक महान, सर्वाधिक उपयोगी, ध्याय का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय एवं परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेय तो निज भगवान आत्मा ही है, उसकी शरण में जाने से ही मुक्ति के मार्ग का आरंभ होता है, मुक्तिमार्ग में गमन होता है और मुक्तिमहल में पहुँचना संभव होता है।
ह्न आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-१९५