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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
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तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति ।
किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वानिवृत्तिमार्ग इति निरुक्तिय॑त्पत्तिरिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिःह्न
(मंदाक्रांता) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय। प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया नि:प्रकम्पप्रकाशां
स्फूर्जज्ज्योति: सहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।६६।। अनन्यवश है, अन्य के वश नहीं है, साक्षात् स्ववश है; व्यवहारिक क्रिया के प्रपंच से पराङ्गमुख उस जीव को अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यानरूप परम आवश्यक कर्म होता है। परम तपश्चरण में निरंतर लीन रहनेवाले परमजिनयोगीश्वर ऐसा कहते हैं।
दूसरी बात यह है कि सम्पूर्ण कर्मों के नाश का हेतु, त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधि लक्षणवाला जो परमयोग है; वह ही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निवृत्ति मार्ग है, मुक्ति का कारण है। ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है।"
उक्त गाथा और उसकी टीका का भाव इतना ही है कि अवश का भाव आवश्यक है और पर के वश नहीं होना ही अवश है।
तात्पर्य यह है कि स्ववश अर्थात् स्वाधीन वृत्ति और प्रवृत्ति ही निश्चय परम आवश्यक है। मुनिराजों के होनेवाले स्तुति, वंदना आदि व्यवहार परम आवश्यक वास्तविक आवश्यक नहीं; क्योंकि वे पुण्यबंध के कारण हैं।
मुक्ति का कारण तो एकमात्र त्रिगुप्ति गुप्त परम समाधि लक्षणवाला परमयोग ही है और वही निश्चय परम आवश्यक है ।।१४१।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीमद् अमृतचंद्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है ह ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(मनहरण) विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के,
चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये।
१.प्रवचनसार, कलश५