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नियमसार
(अनुष्टुभ् ) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा । तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम् ।। २२९ ।। विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुजंदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो । । १३९ ।। विपरीताभिनिवेशं परित्यक्त्वा जैनकथिततत्त्वेषु ।
यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः । । १३९ ।।
इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशइसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा)
आत्मलब्धि रूपा मुकति योगभक्ति से होय ।
योगभक्ति सर्वोत्तमा भेदाभावे होय || २२९||
यह अनुत्तम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगभक्ति भेद के अभाव होने पर ही होती है। इस योगभक्ति द्वारा मुनिराजों को आत्मलब्धिरूप मुक्ति की प्राप्ति होती है।
भेद का अर्थ विकल्प भी होता है । यही कारण है कि गाथा में जहाँ सर्वविकल्पों के अभाव की बात कही है; वही इस कलश में भेद के अभाव की बात की है।
तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के भेद-प्रभेद संबंधी विकल्पों के अभाव में होनेवाली निर्विकल्प भक्ति ही निश्चययोग भक्ति है । यह निश्चय योगभक्ति मुक्ति का कारण है; क्योंकि यह निश्चय रत्नत्रयस्वरूप है, शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणतिरूप है ।।२२९।।
अब आगामी गाथा में परमयोग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
जिनवर कथित तत्त्वार्थ में निज आतमा को जोड़ना ।
योग है यह जान लो विपरीत आग्रह छोड़कर ॥१३९॥
विपरीताभिनिवेश को छोड़कर जो पुरुष जैनकथित तत्त्वों में अपने आत्मा को लगाता है; उसका वह निजभाव योग है।
उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ समस्त गुणों को धारण करनेवाले गणधरदेव आदि मुनिवरों द्वारा कथित तत्त्वों में विपरीत मान्यता रहित आत्मा का परिणाम ही निश्चय परमयोग कहा गया है।