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परमभक्ति अधिकार
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विवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्तः । अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे
भिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभिनिवेश: । अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि । सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैना:, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः । तैरभि हितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति, तस्य च निजभाव एव परमयोग इति ।
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(वसंततिलका) तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंदव्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु । त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथ:
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः ।। २३० ।।
अन्यमतमान्य तीर्थंकरों द्वारा कहे गये विपरीत पदार्थ में दुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश है । उसे छोड़कर जैनों द्वारा कहे गये तत्त्व ही निश्चय-व्यवहार से जानने योग्य हैं।
तीर्थंकर अरहंतों के चरणकमल के सेवक जैन हैं। उनमें मुख्य गणधर देव हैं। उन गणधरदेवादि के द्वारा कहे गये सभी जीवादि तत्त्वों में जो जिन योगीश्वर अपने आत्मा को लगाता है; उसका वह निजभाव ही परमयोग है।"
इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जो विपरीताभिनिवेश अर्थात् उल्टी मान्यता से रहित, जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में निज भगवान आत्मा को लगाता है; उसके उस भाव को योग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिनवरकथित तत्त्वों में प्रमुख तत्त्व जो अपना आत्मा; उसमें अपने श्रद्धा, ज्ञान और आचरण का समर्पण ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। यह दर्शन - ज्ञान - चारित्र ही वस्तुतः योग है। अन्य देहादि की क्रियाओं के परमार्थ योग का कोई सम्बन्ध नहीं है ।। १३९ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा)
छोड़ दुराग्रह जैन मुनि मुख से निकले तत्त्व |
में जोड़े निजभाव तो वही भाव है योग || २३०||
उक्त विपरीताभिनिवेशरूप दुराग्रह को छोड़कर जैन मुनीश्वरों के मुखारविन्द से निकले भव्यजनों के भवों का घात (अभाव) करनेवाले तत्त्वों में जो जैन मुनीश्वर निजभाव को साक्षात् लगाते हैं; उनका वह निजभाव योग है।