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परमसमाध्यधिकार
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(शिखरिणी) अयंजीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधू
धवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः। क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं
तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।।२१७।। जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥१३१।। इस छंद में स्वत:सिद्ध ज्ञान को मोहांधकार का नाश करनेवाला मुक्तिमार्ग का मूल, सच्चा सुख प्राप्त करानेवाला कहा गया है। संसारदुख से बचने के लिए उस ज्ञान की आराधना करने की बात कही गयी है।।२१६।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) आकुलित होकर जी रहा जिय अघों के समुदाय से। भववधू का पति बनकर काम सुख अभिलाष से।। भव्यत्व द्वारा मुक्ति सुख वह प्राप्त करता है कभी।
अनूपम सिद्धत्वसुख से फिर चलित होता नहीं।।२१७|| यह जीव शुभाशुभकर्मों के वश संसाररूप स्त्री का पति बनकर कामजनित सुख के लिए आकुलित होकर जी रहा है। यह जीव कभी भव्यत्व शक्ति के द्वारा निवृत्ति (मुक्ति) सुख को प्राप्त करता है; उसके बाद उक्त सिद्धदशा में प्राप्त होनेवाले सुख से कभी वंचित नहीं होता।
तात्पर्य यह है कि सिद्धदशा के सुख में रंचमात्र भी आकुलता नहीं है; अत: उसमें यह जीव सदा तृप्त रहता है, अतृप्त होकर आकुलित नहीं होता।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि यद्यपि यह जीव अनादिकाल से सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए आकुलित हो रहा है; तथापि कभी भव्यत्वशक्ति के विकास से काललब्धि आने पर सच्चे सुख को प्राप्त करता है तो फिर अनंतकाल तक अत्यन्त तृप्त रहता हुआ स्वयं में समाधिस्थ रहता है।।२१७।।
अब आगामी दो गाथाओं में नोकषायों को छोडनेवाले जीव सदा सामायिक में रहते हैं ह्न यह बताते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न