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परमसमाध्यधिकार
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( हरिगीत ) इस अनघ आनन्दमय निजतत्त्व के अभ्यास से। है बुद्धि निर्मल हुई जिनकी धर्म शुक्लध्यान से || मन वचन मग से दूर हैं जो वे सुखी शुद्धातमा ।
उन रतनत्रय के साधकों को प्राप्त हो निज आतमा ||२१९।। मन-वचन मार्ग से दूर, अभेद, दुःखसमूह से रहित विशाल आत्म तत्त्व को वे मुनिराज प्राप्त करते हैं कि जो पुण्य-पाप से रहित, अनघ, परमानन्दमय आत्मतत्त्व के आश्रय से धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप शुद्धरत्नत्रयरूप में परिणमित हुए हैं।
धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परिणमित आत्मा ही परमसमाधि में स्थित है; उन्हें सदा सामायिक ही है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस परमसमाधि अधिकार की बारह गाथाओं में से आरंभ की दो गाथाओं में तो यह कहा है कि जो वचनोच्चारण क्रिया को छोडकर संयम, नियम, तप तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यानपूर्वक वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसे परमसमाधि होती है।
उसके बाद एक गाथा में यह कहा कि समताभाव रहित श्रमण के वनवास, कायक्लेश, उपवास, अध्ययन, मौन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं।
इसके बाद ९ गाथाओं में यह कहा है कि सर्व सावद्य से विरत, त्रिगुप्तिधारक, इन्द्रियजयी, त्रस-स्थावर जीवों के प्रति समभाव धारक, संयम, नियम और तप में आत्मा के समीप रहनेवाले, राग-द्वेष से अविकृत चित्तवाले, आर्त और रौद्रध्यान से बचनेवाले, पुण्य और पाप भाव के निषेधक, नौ नोकषायों से विरत और धर्म व शुक्लध्यान के ध्याता मुनिराजों का सदा ही सामायिक है, एकप्रकार से वे सदा परम समाधि में ही लीन हैं।
सम्पूर्ण अधिकार का सार इस चन्द पंक्तियों में ही समाहित हो जाता है। यदि एक वाक्य में कहना है तो कह सकते हैं कि निश्चयरत्नत्रय से परिणत तीन कषाय के अभावरूप शुद्ध परिणतिवाले सम्यग्दृष्टि भावलिंगी संत और शुद्धोपयोगी संत ह ये सभी सदा सामायिक में ही है, सदा समाधिस्थ ही हैं।
विशेष ध्यान देने की बात यह है कि शुद्धोपयोगदशा में तो सभी सन्त समाधिस्थ हैं ही, तीन कषाय के अभाव से उत्पन्न शुद्धपरिणति वाले संत शुभोपयोग के काल में भी समाधिस्थ ही हैं, सदा सामायिक में ही हैं। यहाँ यह अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है।
एक बात और भी समझने लायक है कि ऐसा नहीं है कि आँखें बन्द कर बैठ गये और