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नियमसार
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवम: श्रुतस्कन्धः। सामायिक या समाधि हो गई। सदा सामायिक या समाधिवाले व्यक्ति को सर्व सावध से विरत, त्रिगुप्ति का धारक, इन्द्रियजयी, त्रस-स्थावर जीवों के प्रति समभाव का धारक, संयम, नियम और तप में आत्मा के समीप रहनेवाला, राग-द्वेष से अविकृत चित्तवाला, आर्त्त-रौद्रध्यान से विरत, पुण्य-पाप का निषेधक, नोकषायों से विरत और धर्मध्यानशुक्लध्यान का ध्याता भी होना चाहिए।
उक्त योग्यताओं के बिना वह सदा सामायिकवाला या समाधिस्थ नहीं हो सकता ।।२१९।। परमसमाध्यधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्न ___“इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमसमाध्यधिकार नामक नौवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।"
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में परमसमाध्यधिकार नामक नौवाँ श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है।
___ भाई ! ये बननेवाले भगवान की बात नहीं, यह तो बने-बनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है ह्र ऐसा जानना-मानना और अपने में ही जम जाना, रमजाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है। तू एक बार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर; अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि परपदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव-सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायेगा, लीन हो जायेगा, समाधिस्थ हो जायेगा। ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा। एकबार ऐसा स्वीकार करके तो देख।
ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-८३