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परमसमाध्यधिकार
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(मंदाक्रांता) आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे तिष्टत्युच्चैः परमयमिनः शुद्धदृष्टेर्मनश्चेत् । तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे ।।२१२।। जस्स रागो दु दोसो दु विगडिंण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२८।।
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२८।।
(हरिगीत ) शुद्ध सम्यग्दृष्टिजन जाने कि संयमवंत के। तप-नियम-संयम-चरित में यदि आतमा ही मुख्य है। तो सहज समताभाव निश्चित जानिये हे भव्यजन |
भावितीर्थंकर श्रमण को भवभयों से मुक्त जो||२१२।। यदि शुद्धदृष्टिवाले सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा समझते हैं कि परममुनियों के तप में, नियम में, संयम में और सच्चारित्र में सदा एक आत्मा ही ऊर्ध्व रहता है; तो यह सिद्ध होता है कि राग के नाश के कारण उस संसार के भय का हरण करनेवाले भविष्य के तीर्थंकर भगवन्त को सहज समता साक्षात् ही है, निश्चित ही है।
टीका और टीका में समागत उक्त छन्द में यह ध्वनित होता है कि टीकाकार को ऐसा विश्वास है कि वे भविष्य में तीर्थंकर होनेवाले हैं; इसकारण ही वे भावि तीर्थनाथ को याद करते हैं; क्योंकि उक्त स्थिति तो सभी तीर्थकरों की होती है; तब फिर वे भावी तीर्थाधिनाथ को दो-दो बार क्यों याद करते हैं ।।२१२।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(हरिगीत) राग एवं द्वेष जिसका चित्त विकृत न करें।
उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२८|| जिसे राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करते; उसे सामायिक स्थायी है ह ऐसा केवली के शासन में कहा है।